जो दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है और जो दर्शन से भ्रष्ट है उसको कभी निर्वाण की उपलब्धि संभव नहीं है। वह मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सकेगा ।
चरित्र- विहीन दृष्टिवाला व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ‘सिज्झंति चरियभट्ठा’ जिसके पास कोई चरित्र न हो लेकिन दृष्टि हो वह भी पहुँच जायेगा ।
दंसणभट्टा ण सिझंति :- लेकिन जिसके पास दर्शन नहीं है वह लाख उपाय करे तब भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा ।
यह आलेख ‘जिन सूत्र’ के आधार पर तैयार किया गया है। सदी के महान चिंतक एवं दार्शनिक आचार्य रजनीश ने अपने ग्रन्थ ‘जिन सूत्र’ में महावीर के दार्शनिक सिद्धान्तों सूत्रों की व्याख्या की है। आचार्य रजनीश के अनुसार मोक्ष मार्ग पर अग्रसित होने के लिए सम्यक दृष्टि का निरन्तर विकास कर परिपक्व अवस्था ही मोक्ष मार्ग का अन्तिम आयाम है |
संयम के मार्गियों के लिए यह लेख पठनीय एवं विचार उत्तेजक मानते हुए आपकी सेवा में प्रस्तुत है ।
सम्यक दर्शन :- सम्यक दर्शन के आठ अंग है
1. निशंका
2. निष्कांक्षा
3. निर्विचिकित्सा
4. अमूढ़दृष्टि
5. उपगृहन
6. स्थिरीकरण
7. वात्सल्य
8. प्रभावना
निशंका :- सम्यक दर्शन का पहला चरण है निशंका मन में कोई शंका न हो – अभय हो किसी प्रकार का भय न हो ।
जो साहसी हैं वे ही सत्य की खोज पर जा सकेंगे । सत्य की खोज में समझ से ज्यादा मूल्य साहस का है । साहस का अर्थ होता है; जहाँ कभी गये न हों, जिसे कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय, उसमें प्रवेश। अक्सर लोग सत्य की खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़ कर बैठ जाते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहीं जाना नहीं- शब्द का खेल है; बुद्धि की खुजलाहट है। तोते की तरह रट लेंगे और सोच लेंगे कि पहुँच गये। जैसे कोई हिमालय के नक्शे को लेकर बैठ जाए और सोचे कि पहुँच गये; लेकिन हिलेरी को या तेनसिंह को जब गौरीशंकर चढ़ना होता है तो यह छाती पर नक्शे लगाने जैसा नहीं है, यह जीवन को दाव पर लगाना है । साहस चाहिए। मृत्यु भी घट सकती है। जो है वह भी खो सकता है, मिलने का तो कोई पता ही नहीं ।
हिसाबी-किताबी सफल नहीं हो पाते- इसके लिए जुआरी जैसा दिल चाहिए । इस लिए महावीर के सम्यक दर्शन का पहला सूत्र है – निःशंका मन में जरा भी शंका न हो भय न हो यह अभय का मार्ग है, वीरों का मार्ग है, कायर और भगोड़े इस मार्ग पर चल ही नहीं सकते ।
यहाँ तो उलटी हालत है। जैन धर्म को स्वीकारने वाले जरा भी साहसी नहीं है, उन्होंने अपनी कायरता को अच्छे-अच्छे शब्दों से ढांक लिया है, अहिंसा वीरों का वेश है, उनका नहीं जो डर रहे हैं भयभीत हो रहे हैं, घबरा रहे हैं। उसकी अहिंसा किस काम की वह तो केवल लफ्फाजी है ऊपर से थोप लिया आवरण है।
महावीर कहते हैं, निःशंका पहला चरण है जहाँ डरने जैसा कुछ भी न हो जो डर गये वह सत्य की यात्रा पर कैसे निकल सकेंगे ?
दूसरा चरण है: निष्कांक्षा :- आकांक्षा का निष्कांक्षा नकारात्मक रूपहै, लेकिन समझना यह है कि आकांक्षा है क्या ? इसे यों समझे- जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं है। एक बड़ी, गहरी बेचैनी है कुछ होने की, कुछ पाने की कहीं और होने की, कहीं और जाने की। जहां हम है वहां अतृप्ति है! जैसे हम है वहां अतृप्ति ! जो हम है उससे अतृप्ति-कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, किसी और गांव में, किसी और पति के पास, किसी और स्त्री के पास, कोई और बेटे होते, यह शरीर मनमाफिक नहीं है, थोड़ी लम्बाई और होती – कुछ और की दौड़ आकांक्षा है और इसका उल्टा है। निष्कांक्षा !
सत्य की खोज में जो कुछ भी किया जाए उसमें किसी प्रकार की आकांक्षा का न होना ही सम्यक् दृष्टि है यदि सत्य की खोज में भी आकांक्षा लेकर गये तो आप अपने आपको धोखा दे रहे हो। सम्यक की खोज पर वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई हो ।
आपने देखा होगा ! कभी-कभी राह चलते भिखमंगे को देख कर धनपति के मन में ईर्ष्या आ जाती हैं ! क्योंकि जिस मस्ती से भिखारी चल रहा है उस मस्ती से सम्राट भी नहीं चल सकता ! चिंता बहुत हैं, रात सो भी नहीं सकता। भिखारी सड़क किनारे कोई अखबार बिछाकर ही सो जाता हैं और खर्राटे लेने लगता है। कभी-कभी धनवान के मन में ईर्ष्या होने लगती है कि ऐसा स्वास्थ्य, ऐसी निश्चिंतता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम की दशा, काश हमारी भी होती । भिखमंगा भी रोज आपके महल के पास से निकलता है, सोचता है, काश हमारे पास भी ऐसा महल होता ।
आकांक्षा का अर्थ है: जहां तुम हो वहां से राजी नहीं हो ! कहीं ओर दिखाई पड़ता है जीवन का स्वप्न |
सत्य के जगत में आप आकांक्षा लेकर जा ही नहीं सकते! क्योंकि आकांक्षा संसार में लोटा लाती है। महावीर कहते है कि यदि आप स्वर्ग की आकांक्षा से सत्य की खोज कर रहे हो तो चूक जाओगे क्योंकि स्वर्ग की खोज फिर संसार की ही खोज है ।
तो महावीर कहते है किसी प्रकार के लाभ की आकांक्षा-संसार में ही लौटा लाएगी सम्यक दृष्टि पैदा नहीं होगी ।
निष्कांक्षा की दृष्टि पैदा करने के लिए आकांक्षा की व्यर्थता को जानना आवश्यक है। आकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि सहारा पकड़ा वह स्वप्नों में खो गया, उसने अपने स्वप्नों का संसार बना लिया । लेकिन सत्य कभी उससे निकला नहीं। वह रेत की तरह है, उससे तेल निकल नहीं सकता – क्योंकि उसमें तेल है ही नहीं ।
तीसरा चरण हैः- निर्विचिकित्साः– जुगुप्सा का अभाव । अपने दोषों को तथा दूसरे के गुणों को छिपाने का नाम जुगुप्सा है। प्रत्येक व्यक्ति जुगुप्सा में उलझा है, अपने दोष छिपाते है और दूसरों के गुण छुपाते है।
जुगुप्सा का अभाव का नाम हैः निर्विचिकित्सा ! यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है। यदि ख्याल में रखा तो आप आत्मरूपातंरण को पा सकेगें, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो आदमी अपनी भूलें छिपाता है ओर दूसरों के गुण दबाता है, वह आदमी कभी गुणवान नहीं हो सकेगा। दूसरे के गुणों को देखना, पहचानना, स्वीकार करना; दूसरे को देख कर ही तो अपने मन में भी सूत्रपात्र होगा। किसी के मधुर कंठ को सुनकर ही तो आपको भी ख्याल आएगा कि मेरा कंठ भी मधुर हो सकता है। किसी कोयल की कूह – कूह सुनकर आपके भीतर भी तो इसका संचार होगा ।
लेकिन आपने कहा, ‘यह क्या कुहू कुहू है ? यह सब शोरगुल है । यह सब उत्पात है। यह कोई संगीत है ? अगर आपने कुहू कुहू को जानने से इनकार कर दिया तो अपने भीतर कुहू कुहू के स्वर की संभावना से इनकार कर दिया ।
महावीर कहते है जब दूसरे में कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और समादर से, अहोभाव से उसे स्वीकार करना, और जब अपने भीतर कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना नहीं, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, वे भीतर ही भीतर बढ़ते रहते है। जिसे आपने छिपाया वह और बढ़ेगा। अपने दोष को प्रकट करना और उसे स्वीकार कर लेना ही निर्विचकित्सा है।
ईसाईयों में कनफेशन का बड़ा मूल्य है । उसी कनफेशन की तरफ महावीर का इशारा है। कनेफेशन का अर्थ है अपनी बड़ी से बड़ी भूल को स्वीकार कर लेना । स्वीकार करते ही आप हलके हो जाते हों प्रकट करते हो आप निर्विकार हो जाते हो। छिपाया – दबाया, तो जो आज छिपाया है उसे कल भी छिपाना पडेगा । और मजा यह है कि जिसे आप छिपाओगे उसे दूसरे उघाड़ने की कोशिश करेगें। क्योंकि जो आप उनके साथ कर रहे हो, वही वे तुम्हारे साथ कर रहे है। आप उनके गुणों को दाब रहे हो और उनके दुर्गुणों को उघाड़ रहे हो – वे भी आपके गुणों को दाब रहे है और आपके दुर्गुणों का उघाड़ रहे है। तो आप जो छिपाओगे, उसे लोग उघाड़ेंगे। अगर आपने छिपाया और न छिपा पाये और लोगों ने उघाड़ा तो भी तो दुःख होगा पीड़ा होगी, नाराजगी होगी, क्रोध होगा। इससे अंधेरा बढेगा, प्रकाश घटेगा। जो हो गई भूल उसे स्वीकार करलों यही निर्विचिकित्सा है।
सम्यक ज्ञान का चोथा चरण है: अमूढ़दृष्टि :- यह बहुत क्रान्तिकारी चरण है।
महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढताएं है, भ्रांत दृष्टियां है। एक मूढता को वे कहते है, लोकमूढता । अनेक लोग अनेक कामों में लगे रहते है, क्योंकि वे कहते है कि समाज ऐसा करता है; क्योंकि और लोग ऐसा करते है । उसको महावीर कहते है लोकमूढता । क्योंकि सभी लोग ऐसा करते है, इसलिए हम भी करेगें… सत्य का कोई हिसाब नहीं है- भीड़ का हिसाब है। तो वह भेड़चाल हुई ।
एक स्कूल में एक शिक्षक ने एक छोटे बच्चे से पूछा कि तुम्हारे घर भेडे है ? बच्चे ने उत्तर दिया हाँ है। तो बताओ तुमने आंगन में दस भेड़े बंद कर रखी है और उन में से एक छलांग लागकर बाहर निकल जाए, तो कितनी पीछे बचेगी ? उस बच्चे ने कहा; एक भी नहीं। उस शिक्षक ने कहा, ‘तुम कुछ गणित जानते हो या नहीं ? मैं कह रहा हूँ दस भेड़ अन्दर है और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो कितनी बचेंगी ? उस बच्चे ने कहा कि गणित की तो आप जानो सर, भेड़ों की मैं जानता हूँ। एक निकल गई तो सब निकल जायेंगीं । गणित का मुझे पता न हो, लेकिन भेड़ों का मुझे पता है।
भेड़ चाल ! यह भरोसा रख कर कि जहां सब जा रहे है ठीक ही जा रहे होगें और सब को यही भरोसा है इसी को महावीर लोकमूढता कहते है ।
महावीर ने दूसरी मूढ़ता को देवमूढ़ता कहा है ! कि लोग देवताओं की पूजा करते है। कोई इन्द्र की पूजा कर रहा है कि इन्द्र पानी गिरायेगा, कोई काली माता की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर हो जायेगी । लोग न जाने कितने देवताओं की पूजा कर रहे है।
महावीर कहते है, देवता भी तुम्हारे जैसे ही है। यही वासनायें, यही जाल-यही जंजाल उनका भी है। धन-लोलुपता पद- लोलुपता, यही राजनीति उनकी भी है तो अपने जैसों की पूजा करके, आप कहां पहुँच जाओगे ? जो उन्हें नहीं मिला वह आपको कैसे दे सकेंगे ।
तीसरी मूढ़ता है; गुरुमूढ़ता :- लोग हर किसी को गुरु बना लेते है जैसे बिना गुरु के जीना ठीक न हो- गुरु होना ही चाहिए। तो किसी को भी गुरु बना लिया। किसी से भी कान फुकवा लिए। यह भी नहीं सोचते कि जिससे कान फुकवा रहे है उसके पास कान फूकने जैसे कुछ है ?
गुरु को खोज लेने का अर्थ है एक ऐसे हृदय को खोज लेना जिसके साथ आप धडक सको और उस लम्बी अनंत यात्रा पर जा सको ।
इसलिए महावीर कहते है कि; यह तीन मूढ़ताएं है और इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति सत्य की राह पर नहीं जा पाता या तो भीड़ को मानता है, या देवी – देवताओं को पूजता है ।
महावीर कहते है अमूढ दृष्टि पैदा होनी चाहिए। सम्यक दर्शन का पांचवा चरण है: उपगृहन
उपग्रहन का अर्थ है: अपने गुणों और दूसरे के दोषों को प्रकट करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गुण प्रकट न करना और दूसरे के दोष प्रकट न करना । संसारी तो करता ही उलटा है, अपने गुण प्रकट करते है, जो नहीं है वे भी प्रकट करते है और दूसरे के दोष प्रकट करते है, जो नहीं है वे भी प्रकट करते है, जो दोष है उनकी तो बात ही अलग हैं
महावीर कहते है जिन्हें सत्य की खोज पर जाना है उन्हें ये सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं अपने जीवन में उतारनी ही पड़ेंगी। अपने गुणों का बखान मत करना दूसरे को दोष को भी उजागर मत करना। आपका किसी के दोषों से क्या प्रयोजन है ? दूसरों के दोष है – दूसरे जाने । न जाने किन परिस्थितियों में दूसरे में वह दोष विकसित हुआ हो ।
मनोवैज्ञानिक अपराधों की मानसिकता पर बहुत अध्ययन कर रहे हैं। उनके जो नतीजे है वह मन में घबराहट पैदा करने वाले है। आने वाले समय में उनके निष्कर्षो को स्वीकार किया गया तो न्यायालयों की भूमिका ही समाप्त हो जायेगी ।
आपने देखा होगा कि कुछ लोग चोरी के रोग के शिकार होते है उन्हें खुद पता नहीं होता कि कब उन्होने सामने वाले के पैन को अपनी जेब में रख लिया वह मूलतः रोगी है चोर नहीं, दया का पात्र है उसे उपचार की आवश्यकता है।
महावीर कहते है, दूसरे के दोषों पर बात ही मत करना, आपको क्या पता कि किस मजबूरी में किस कठिनाई के कारण उसमें दोषों का सृजन हुआ है। उसके जन्मों-जन्मों की जीवन कथा का आपकों क्या पता, लम्बी यात्रा है। उस लम्बीयात्रा में कहां उसने किसी दोष को अर्जित कर लिया हो । अनजाने में सीख लिया हो ।
और फिर आप निर्णायक कैसे हो सकते है ? दूसरा स्वयं जिम्वेदार है अपने दोषों का, अपने कृत्यों का, ध्यान रखना दूसरों के गुणों को देखना तो जरूरी है लेकिन दूसरों के दोषों को कमजोरियों को देखना आवश्यक नहीं। और हो क्या रहा है-उल्टा दूसरों के दोषों में जो रस आता है और अपने गुणों के बखान में जो रस आता है महावीर उस रस से अपने आपको मुक्त करने की बात करते है ।
सम्यक दृष्टि का छटा आयाम है :- स्थिरीकरणः– महावीर कहते है कि जीवन की यात्रा में, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूके होंगी, बहुत बार पांव यहां-वहां पड़ जायेगें, बहुत बार आप भटक जाऐगे तो उसके कारण व्यर्थ परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, परेशान मत होना और अपराध भाव मत लाना यह स्वाभाविक है। जब भी आपको स्मरण आ जाये फिर अपने आप को मार्ग पर आरूण कर लेना, फिर अपने आप को स्थिर कर लेना । उसी का नाम है स्थिरीकरण ।
आप ध्यान करने बैठते हो, स्थिरता टूट जाती है: किसी विचार के पीछे चल पड़े। कभी-कभी ऐसे विचार, जिससे आप का कोई लेना-देना नहीं हो- आप ध्यान करने बैठे, एक कुत्ता भोंकने लगा, अब कुत्ते के भोंकने से आपका क्या लेना-देना हो सकता है ? लेकिन कुत्ते के भोंकने से आपको अपने मित्र के कुत्ते की याद आ गई। मित्र के कुत्ते की याद आ गई तो मित्र की याद आ गई । मित्र के साथ कभी दो साल पहले कोई सुन्दर दिन बिताया था, वह याद आ गया चल पड़े। जब याद आ जाये कि अरे – तब तत्क्षण स्थिर हो जाना। फिर वापस लौट आना, इसको लेकर परेशान मत होना, कि यह मैंने क्या कर लिया, क्यों कि वह परेशानी भी फिर ध्यान न लगने देगी। जैसे ही याद आ जाये, चुप-चाप अपने को स्थिर कर लेना । लोग क्या करते है- पहले गलती करते है, फिर गलती के संबंध में पश्चाताप करते है, फिर रोते हैं, अपराध अनुभव करते हैं- यह गलती से ज्यादा बड़ी गलती है। गलती तो एक जगह होकर पूरी होगई फिर उसका सिलसिला चल पड़ा। अब उसका पश्चाताप करो। अब रोओ। अब सोचो कि भूल हो गई, ड़िग गया अपने पथ से, पापी हो गया ।
महावीर कहते है, इस सब में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। स्मरण आया, भूल से रास्ते से भटक गये, तत्क्षण चुपचाप वापस लौट आना। ऐसा बार-बार स्थिरीकरण होते होते वह स्थिति घटेगी। फिर ऐसी घड़ी आ जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। आपकी स्थिरता शाश्वत हो जाती है। साधक की लौ अकंम्प हो जाती है।
सावतां आयाम है- वात्सल्यः–
वात्सल्य को समझने के लिये तीन शब्दों को समझना आवश्यक है। तब ही वात्सल्य को समझा जा सकता है। यह तीन शब्द है प्रार्थना, प्रेम, वात्सल्य ।
प्रार्थना अपनों से बड़ों से की जाती है। परमात्मा उसके प्रति प्रार्थना में एक मांग होती है। प्रार्थना शब्द में ही मांग छिपी है। इसलिए मांगने वाले को हम प्रार्थी कहते हैं। मांगा उससे जाता है जिसके पास हमसे ज्यादा है, अनंत हो। तो प्रार्थना सिर्फ भगवान से की जा सकती है। लेकिन महावीर की व्यवस्था में भगवान की कोई जगह ही नहीं है । इसलिये प्रार्थना की भी कोई जगह नहीं ।
दूसरा शब्द है प्रेम। प्रेम सम अवस्था, सम स्थिति वाले लोगों में होता है- एक स्त्री में, एक पुरूष में, दो मित्रों में, मां में बेटे में, भाई-भाई में- ऐसा समस्थिति । परमात्मा ऊपर है, प्रार्थना नीचे है। लेकिन प्रेमी साथ- खड़े है। परमात्मा से सिर्फ मांगा जा सकता है, उसको दिया तो कुछ जा नहीं सकता उसे देने को हमारे पास कुछ भी नहीं है। अपने को भी दे तो वह देना नहीं है । क्योंकि हम भी उसी के है तो देना क्या है ?
इसलिए महावीर कहते है कि परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा के कारण सारा संसार भिखारी हो जाता है।
प्रेम में हम लेते-देते है, क्योंकि दोनों समान है। जिसको आप प्रेम करते हो उसको आप प्रेम देते भी हो, जो आपको प्रेम करता है वह आपको प्रेम देता भी है, लेकिन देता इसलिए है कि उसे वापिस प्रेम मिले भी। तो प्रेम में लेन-देन है। परमात्मा की तरफ से एकतरफा सिर्फ मिलता है; देने को हमारे पास कुछ है भी नहीं । प्रेमी लेते-देते है ।
वात्सल्य-प्रार्थना का ठीक उलटा है। वात्सल्य का अर्थ है; तुम दो । इस लिये कहा जाता है माँ का वात्सल्य बेटे की तरफ औलाद की तरफ । बेटा क्या दे सकता है, अभी पैदा हुआ, चल भी नहीं सकता, बोल भी नहीं सकता कुछ लाया भी नहीं नंग-धड़ंग चला आया है। हाथ खाली है। वह देगा क्या ? इसलिए समान तल तो हो नहीं सकता। और मांग भी नहीं सकता, क्योंकि मांगने के लिये भी अभी उसके पास कुछ नहीं है । इसलिये माँ का वात्सल्य है। माँ उसे प्रेमकरती है वह सिर्फ देने-देनेका है। माँ देती है, वह लौटा भी नहीं सकता। उसको अभी होश ही नहीं है लौटाने का ।
वात्सल्य का अर्थ है तुम दो जैसे माँ देती है।
तो महावीर कहते है, प्रार्थना नहीं, प्रेम नहीं – वात्सल्य । आप तो लुटाओं, जो भी तुम्हारे पास है दिये चले जाओ। इसकी फिक्र मत करो कि किसको दिया। बस इसकी फिक्र करो कि दिया। जो आपके पास है वह देते चले जाओ। कुछ आपके पास बाहर का न हो तो भीतर का दो – अपना अस्तित्व बांटो पर देते रहो ।
भक्ति के रास्ते में प्रार्थना का सूत्र है, ठीक उसके विपरीत ध्यान के रास्ते में वात्यल्य का सूत्र है। भक्ति के रास्ते पर आप भिखारी होकर भगवान के मंदिर पर जाते हो क्योंकि मांग में तो आकांक्षा है सम्यक दृष्टि के पहले चरण में ही समाप्त हो गई।
कबीर ने कहा है दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम | कबीर का उलीचना ही महावीर का वात्सल्य है।
आठवाँ आयाम है – प्रभावना :– सम्यक दर्शन का आठवाँ चरण है प्रभावना । यह महावीर का अपना शब्द है। इसका कोई पर्यायवाची नहीं है। प्रभावना का अर्थ होता है कि इस प्रकार जीयो कि आपके जीने से धर्म की प्रभावना हो। इस ढंग से उठो – बैठो कि आपके उठने – बैठने से धर्म झरे । और जिनके जीवन में धर्म की कोई रोशनी नहीं है, उनको भी धर्म की प्यास पैदा हो। आपका चलना, आपका व्यवहार, आपके जीवन की शैली- सभी प्रभावना बन जायें ।
आप एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व बन जाओ कि जिन के पास ज्योति नहीं है, उनको भी ज्योति होनी चाहिए – अंधेरे का भी कोई जीवन है, ऐसा भाव उठे। आप जहां से गुजर जाओ, वहीं लोगों के हृदय में लहर दौड़ जाए। और लोगों का जीवन सत्य की तरफ उन्मुख हो ।
महावीर कहते है, सत्य की खोज का आठवा अंग हैं प्रभावना । क्योंकि आप जब सत्य को खोजने चले हो, तो अकेले नहीं नहीं तो वह स्वार्थ हो जाएगा। महावीर बड़े अनूठे शब्दों का उपयोग करते है। वे यह नहीं कहते कि आप लोगों को उपदेश देना वे यह भी नही कहते कि आप लोगों को आदेश देना । वे कहते है प्रभावना |
आपके होने के ढंग से लोगों को उपदेश मिल जाए। आपके होने के ढंग से लोगों को आदेश मिल जाए। आपका होना ही आपका अस्तित्व मात्र एक नये जगत का प्रवेश हो । आपका उनके पास आ जाना, आपका सत्संग आपकी मौजूदगी, उन्हें रूपांतरित कर दें। उनकी आंखे इस तरफ उठ जायें जहां कभी न उठी थी। इसके लिये ही महावीर इस अनूठे शब्द का प्रयोग करते है वह है प्रभावना |
आप किसी को प्रभावित करने की चेष्ठा भी मत करना। आपका होना ही प्रभावना बने ।
यह आठ अंग स्मरण हो तो सम्यक दर्शन निर्मित होता है ।
पोत अगतिण इन तरंगो ने डुबाए, मानता मैं
पार भी पहुंचे बहुत से
बात यह भी जानता मैं
किन्तु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे
पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता में
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डुबा न यौवन
तीर पर कैसे रूकूं मैं
आज लहरों में निमंत्रण
भगवान महावीर का दूर अनंत सागर की लहरों को निमंत्रण है | निमंत्रण ही नहीं उस दूर सागर तक पहुंचने का एक-एक कदम भी स्पष्ट कर गए है। महावीर के आध्यात्मिकता के विज्ञान में कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ते, खाली जगह नहीं है। नक्शा पूरा है। एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए हैं और जगह-जगह मील का पत्थर खड़े कर गये हैं।
ये आठ सूत्र सम्यक दर्शन के सध जाएं तो सब सध गया। ये आठ सध जाएं तो समाधि सध गई, क्योंकि इन आठ के सधते ही सारी समस्याएँ तिरोहित हो जाती है । जो शेष रह जाता है; वही समाधान है।
अशोक कुमार जैन
2 बी रामद्वारा कॉलोनी
महावीर नगर,जयपुर