गतांक से आगे—
*10 वे भव में श्री पार्श्वनाथ भगवान–*
*इसी जम्बूद्वीप के दक्षिणार्थ भरतक्षेत्र में तिलक रूप काशी देश की वाणारसी नगरी में अश्वसेन राजा की वामादेवी पटराणी थी। मरुभूति के जिस जीव ने पहले तिर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया था और जो प्राणत नामक देवलोक में था ,वह वहां से च्यवकर के मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त भगवान अरिष्टनेमि के निर्वाण से तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत होने पर विशाखा नक्षत्र में चंद्र का योग होने पर चैत्र वदी चतुर्थी को अर्धरात्रि के समय वामादेवी की कुक्षी में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।उस समय वामादेवी ने, गण्डस्थल से झरते मदजल की सुगन्ध से आकृषित होकर इकट्ठे हुए भ्रमरों के समूह के शब्दो से सन्तोष करने वाले और सातों अंगों से प्रतिष्ठित हाथी को मुख में प्रवेश करते हुए देखा।विशाल एवं पुष्ट कंधे वाले,विचित्र सींगों वाले ,चन्द्र के समान श्वेत शरीर वाले और लीला पूर्वक गमन करने वाले वृषभ को मुख में प्रवेश करते हुए देखा। उछलती केशरा के विस्तार वाले और अत्यंत मनोहर रूप से चलते हुए सिंह को देवी ने अपने मुख में भ्रमर की तरह प्रवेश करते देखा।
हाथी के द्वारा धारण किये हुए चांदी के कलश से स्नान कराई जाती हुई और कमलपत्र के समान लक्ष्मी को साक्षात मुख में प्रविष्ट होते देखा । भ्रमर समूह के व्याप्त पत्रोवाली, ,प्रचुर मालती के पुष्पो वाली अत्यंत सुगन्धित पुष्पो की माला को अपने मुख की और आते देखा। उल्लसित होती हुई प्रभा रूपी जल की कल्लोलो से मानो आकाश को व्याप्त कर रहा हो,ऐसा मनोहर और लांक्षनरहित चन्द्र को देवी ने स्वप्न में अपने मुख रूपी उदयाचल पर्वत में लीन हुआ देखा।
मुखरूपी आकाश का अनुसरण करनेवाली ,शब्द करती हुई मणिमय घुघरुओ से परिवेष्टित और बहुत लंबे बाँस पर रही हुई श्वेत ध्वजा स्वप्न में देखी। अत्यंत मनोहर आकार के कारण सुन्दर रूप वाला और पुष्पमालाओं से सुशोभित कुम्भ स्वप्न में मुख्य में प्रवेश करते देखा।मानो गुन गुन शब्द द्वारा भ्रमर करते भ्रमरों द्वारा अपने गीत गाये जा रहे हो, ऐसे पद्म सरोवर की और अपने मुख को जाते देखा। मिलती हुई अनेक नदियों के जल के समूह से व्याप्त और विराट कल्लोलो में सुशोभित समुद्र को स्वप्न में अपने मुख रूपी आकाश में प्रवेश करते देखा। रत्नमय भित्तिभाग वाले और फड़कते हुए ध्वजपट से शोभायमान महाविमान को देवी ने अपने मुख में रहा हुआ देखा। पांच प्रकार के रत्नों को किरणों के समूह से दिशा समुद्र को इंद्रधनुष वाला करने वाली रत्न राशि को अपने मुख में प्रवेश करते देखा।
सत्यवती के मुख में स्थित , उछलती ज्वालाओं के समूह के कारण कठिनाई से देखी जाने वाली और जैसे घी में सिंचन की हुई हो ऐसी वृद्धि पाती हुई शिखा वाली अग्नि को मुख में प्रवेश करते देखा।*
इस प्रकार 14 महास्वपन देखकर वामादेवी सन्तुष्ट हुई। राजा अश्वसेन से कहा। राजा ने आनंदित होकर बतलाया, हे देवी..महान पुण्य के प्रकर्ष से दिखाईं देने वाले इन स्वप्नों के फ्लश्वरूप त्रिभुवन में प्रख्यात सुरों और असुरों द्वारा वन्दनीय सर्व राजाओं के मुकुट समान पुत्र की तुम्हे प्राप्ति होगी।
इस समय वामादेवी के गर्भ में अवतरित तीन लोक के नाथ के प्रभाव से , आसन कम्पायन होने से अवधिज्ञान द्वारा जानकर 32 इंद्र अत्यंत हर्ष से रत्न विमान में वाणारसी आये। उन्होंने जिनेश्वर की माता को तीन प्रदक्षिणा की फिर भूतल पर मुकुट को नमाकर प्रणाम करके स्तुति करने लगे — हे देवी ..भवकूप रूपी अंधकूप में पड़ते हुए प्राणियों का उद्धार करने में समर्थ और चिंतामणि रत्न का पराजय करने वाले पुत्र को कुक्षी में धारण करने वाली ,तुमने केवल अपनी आत्मा का ही भवरोग से उद्धार नहीं किया ,किन्तु तीन जगत का उद्धार किया है। स्तुति करके चारो और नगर में सुगन्धयुक्त पुष्पो का समूह बिखेरा और देव लोक में चले गए।
पोष वदि 10 को मध्य रात्रि में विशाखा नक्षत्र में चंद्र को आगमन होने पर शुभ ग्रह बलवान होने पर वामादेवी ने जगत के गुरु भगवान को जन्म दिया। तीनों लोकों में प्रकाश करने वाला महान उद्योत हुआ। 56 दिशा कुमारियों ने सूति कार्य सम्पन्न किया।आसन कम्पायनमान होने से तिर्थंकर का जन्म जानकर 78 पैर दूर जाकर नमुत्थुणम से भगवान की स्तुति की। करोड़ो देव देवोयो से परिवृत इंद्र वाणारसी में आये और जिनेश्वर के घर को तीन प्रदक्षिणा करके , फिर भगवान और उनकी माता को प्रणाम करके ,भगवान को मेरूपर्वत पर लेजाकर अभिषेक करके, और पुनः माता के पास छोड़कर देवलोक चले गए। फिर राजा अश्वसेन ने अति हर्ष से प्रभु के दर्शन किये । बारहवे दिन अश्वसेन राजा ने कहा– अत्यन्त श्याम रात्रि में भी माता ने अपने पास जाते सर्प को देखा था और सपन में भी सर्प देखा था इस कारण भगवान का नाम पार्श्व स्थापित करते है।
कुशस्थल में प्रसेनजित राजा की स्वयंप्रभा पटराणी से शुभ स्वपन पूर्वक प्रभावती नामक श्रेष्ठ कन्या जन्मी। किसी समय वह मयूर उद्यान में गई। वहां किन्नरिया गया रही थी ।समस्त कलारूप कलहंस के समूह को सरोवर के समान धारण करने वाले सुकृत के भण्डार श्री पार्श्व का पाणिग्रहण कदाचित बहुत पुण्यशालिनी कन्या कर सकती है, यह सुनकर प्रभावती पार्श्व के साथ पाणिग्रहण करने के लिए उत्कंठित हुई । प्रसेनजित भी इसमे सहमत थे । किंतु अन्य राजाओं को मना कर देने के कारण उन्होंने चढ़ाई कर दी। यह समाचार पाकर राजा अश्वसेन ने सेना तैयार की। श्री पार्श्व यह समाचार जानकर पितां को रोककर स्वयं ही तैयार हुए। जब इंद्र को पता चला तो उसने पृथ्वीतल का स्पर्श न करने वाला और अनेक दिव्य शास्त्रों से भरपूर मातलि सारथि से यूक्त रथ भेजा। मातलि की प्रार्थना पर श्री पार्श्व उस र्थ पर आरूढ़ हुआ। कुशस्थल के निकट पहुचे।*
श्री पार्श्व ने विचार किया–मृगों के साथ सिंह का युद्ध योग्य नहीं। दूत भेजा मगर विरोधी युद्ध करने को तैयार हुए। तब उनके मंत्री ने उनको बतलाया कि इंद्र ने रथ भेजा है साथ ही उसने पैरों में पड़ने की सलाह दी। और कहा कि तीन लोक के नाथ को आप जीत नहीं सकते।अतः वे राजा पैरों में पड़कर शरण में आये। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त में पाणिग्रहण करके वाणारसी आये। उस समय भवित्तव्यतावश कमठ भी वहीं आया। पंचाग्नि तप की बात सुनकर भुवनस्वामी कहने लगे– अहा.. यह महान आश्चर्य है कि विवेकहीन और हिताहित को नहीं पहचानते हुए अज्ञानी जन स्वयं नष्ट होते है और दूसरों का नाश करते है। उपेक्षा करना योग्य नहीं..ऐसा कह कर चले।*
इस अवसर पर सुलगते हुए अग्निकुंड में एक मनुष्य लक्कड़ डाल रहा था।उस लक्कड़ के भीतर बड़ा सर्प था। अवधिज्ञान से उसे देखकर प्रभु ने कहा– धर्म के लिए तप करने वाले तापस..तुमने धर्म के बहाने पाप उपार्जन करने वाला यह क्या प्रारम्भ किया है…धर्म का मूल दया है..अग्नि सुलगाने से दया कैसे हो सकती है..अग्नि में तो सर्व जीवो का विनाश देखा जाता है..कदाचित शरीर का दाह करने से पाप का नाश होता है इसलिए अग्नि का प्रारम्भ किया है..तो आत्मघात करने से क्या लाभ..अतएव धर्म करना ही उचित है।दूसरे निरपराध जंतुओं का हनन करने से क्या फल..दुसरो का हनन करने से आत्मा को महान दुःख ही प्राप्त होता है।जैसे स्वयं को विनाश से बहुत दुःख होता है उसी प्रकार दुसरो के विनाश से उन्हें भी बहुत दुःख होता है। अपने अनुभव से ऐसा जानकर जीवन के अभिलाषी सर्व प्राणियों का रक्षण करना चाहिए।यही श्रेष्ठ धर्म है।तो फिर अनर्थकारी इस पंचाग्नि तप से क्या फल होने वाला है .. दया भावना से धर्म होता है। समकित के अभाव में सब क्रियाएं निष्फ़ल है।अतएव हे तापस … अग्नि के कुंड में ईंधन सुलगाने का कार्य तू शीघ्र त्याग दे..क्योकि यह कार्य कर और अचर जीवो के विनाश का कारण है।
पुरुषदानीय जगतगुरु श्री पार्श्वप्रभु के कल्याणक दिवस पर सभी यथाशक्ति आराधना अवश्य कर आत्मकल्याण साधे।
पारस मल जैन
जोधपुर