गतांक से आगे—
2- हस्तिराज
दूसरे भव में मरुभूति का जीव दंडकारण्य में एक हथिनी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात यौवनावस्था में आया।वह यूथ का अधिपति बन गया।वह इच्छानुसार हथिनियों के शरीर को स्पर्श करने के लिए सूंड को लम्बा करता और मन्द गति से विचरण करता था । हथिनियों से परिवृत वह हस्तिराज वन में भ्रमणा किया करता था।
अरविन्द राजा ने समन्तभद्र सूरी के पास प्रवज्रा ग्रहण की।कुछ काल के बाद उन्हें अवधिज्ञान हो गया।तत्पश्चात वे एकल विहारी हो गए। एक बार वे संघ के साथ अष्टापदगिरी के दर्शन करने जा रहे थे।मार्ग में एक सुंदर जलाशय के पास सर्थ ने पड़ाव डाला।उस समय हस्तिराज ने हथिनियों के साथ जलाशय में प्रवेश किया।पानी पिया,श्रृंगार कर और कमल के समूह का भक्षण किया और हथिनियों के साथ जलक्रीड़ा की।फिर बाहर निकल कर पाल पर आया। आसपास नजर दौड़ाई।कुपित यमराज के समान हस्तिपाल की दृष्टि संघ पर पड़ी।वह गर्जना करता हुआ संघ की और दौड़ा।गर्जना सुनकर संघ के सभी लोग भयभीत होकर भागे।चारो और मदोन्मत्त दौड़ते हुये हस्तिराज को देख कर और अवधिज्ञान से प्रतिबोध का अवसर जानकर राजर्षि अरविन्द ज़रा भी क्षुब्द नहीं हुए। वे मन्दरपर्वत की तरह कायोत्सर्ग में चल रहे।*
*समग्र यूथ से परिवृत हस्तिराज संघ के धन, यान वाहनों आदि को चकनाचूर करके इधर उधर देखने लगा उच्च स्थान पर स्थित मुनि श्री को देख कर वह एकदम उनकी और दौड़ा। मगर उनके तप के महात्म्य से उसका सामर्थ कुंठित हो गया।इतना सीधा बन गया जैसे किसी ने मस्त्तक पर अंकुश का प्रहार किया हो।।भय हास्य और क्रोध से रहित सिंह के समान मुनि को देखते ही उसका क्रोध एवं उत्साह भंग हो गया। मारने की उसकी अभिलाषा नष्ट हो गयी। हृदय में दया प्रधान संवेग का आवेग उछाले मारने लगा।वह ऐसा स्थिर हो गया मानो चित्रलिखित हो या मिट्टी का बना ही।*
*राजर्षि ने कायोत्सर्ग कर अंजनगिरी के समान स्थिर शरीर वाले हस्तिराज को प्रतिबोध देने के लिए अत्यंत मधुर और मनोहर वाणी में कहा—हस्तिराज .. पहले अनुभव किया हुआ मरुभूति का भव क्या तुझे याद नहीं आ रहा है ..मुझ अरविन्द राजर्षि को क्या तू नहीं पहचानता…पूर्व में अंगीकार किये सर्वज्ञ के धर्म का क्या विचार नहीं आता।
इस तरह वचन सुनकर विचार करते हुए उसे जातिस्मरण पूर्वभव का अनुभव हो आया।तब अतिशय सन्तोष के प्रकर्ष के साथ हस्तिराज ने पृथ्वीतल पर मस्तक टेक कर उन तपस्वी को वन्दना की।और स्वभाव से ही कोमल उनके चरण कमल के तल को स्पर्श किया ।कमठ द्वारा की हुई कन्दर्थना का स्मरण हो आने से उत्पन्न वैराग्य के कारण आँखों से आंसू आने लगे।वह मुनि की पर्युपासना कंरने में प्रवृत हुआ।
तपस्वी ने कहा– हे वत्स.. तू स्वयं ही संसार में उत्पन्न होने वाली विडंबना के समूह का अनुभव कर चुका है। तुझे क्या सीख दू..फिर भी कहता हूँ। कहा जाता है कि कई बार आँखों देखी बात दूसरे से कही जाय तो भी वह उस पर विश्वास नहीं करता। ऐसी वस्तु को भी माया, इंद्रजाल की तरह कर्म का परिणाम प्रकट करता है । तू जिनेश्वर के धर्म में अनुरागी था, फिर भी कपटी कमठ ने जब तेरे सर पर शिला पटकी, तेरा सिर फोड़ा, तब उसकी वेदना से तू ने आर्तध्यान के वशीभूत होकर अपना सम्यक्तत्व भंग कर दिया और तिर्यंच गति पाई। इस समय तू स्वभाव से ही हाथी के शरीर का अनुभव करता हुआ है भद्रे..सर्व विरति के योग्य किस प्रकार हो सकता है..अहा..महान आश्चर्य की बात है कि पूर्व में इस प्रकार की सामग्री प्राप्त होने पर भी आज तू इस स्थिति को प्राप्त है। किंतु निष्फ़ल, नष्ट हुई वस्तु के लिए शोक करने से कोई लाभ नहीं। अब तू समयोचित कार्य कर। सन्ताप को त्यज। दुःख समूह रूपी वन को भष्म करने के लिए अग्नि के समान , पूर्व भव में आचरित जिन धर्म को ही तू एकाग्र चित से अंगीकार कर। पाँच अणुव्रतों का अनुसरण कर,तीन गुणव्रतो का पालन कर,और क्रमशः चार शिक्षा व्रतो को भी ग्रहण कर। दुःख रूपी अग्नि को शांत करने के लिये मेघ समान तथा समस्त प्राणियों के समूह के मन को तुष्टि प्रदान करने वाले और मन्त्र के समान पँचपरमेष्टि का एकाग्र मन से स्मरण कर। कषाय के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्ट कर्मो के विलास को तू शीघ्र त्याग दे। श्रद्धा रूपी ज्ञान के सार बहुत शुभ भावना के समूह की भावना कर। व्यामोह रूपी महान ग्रह से उत्पन्न होने वाले विषयो के संग का सर्वथा त्याग कर दे, क्योकि तूने देव और मनुष्य के भोग भोगे है तो फिर इन भोगों में प्रीति कैसे हो सकती है। तू सद्गुरु और जैन धर्म के प्रति दिनानुदिन बढ़ती हुई शुभ भावना धारण कर। जिसका कल्याण होने वाला होता है उसी को यह सब प्राप्त हो सकता है। स्त्रिजनो द्वारा जिसके मन में सन्तोष उत्पान किया गया है ऐसे गृहस्थ इंद्र के विजयवान वैभव को प्राप्त कर सकते है।लाखो शत्रुरूपी लाक्षारस का क्षय करने वाने राज्य का भोग प्राप्त हो जाता है, किन्तु भव कूप में पड़े हुए का उद्धार करने में समर्थ धर्म की प्राप्ति नहीं हो पाती। मनोहर एवं श्रेष्ठ देवियों सहित इंद्र का पद मनुष्य को प्राप्त हो सकता है परन्तु मोक्ष का फल देने वाला धर्म प्राप्त होना कठिन है। इस कारण हे श्रेष्ठ हस्तिराज..तू समस्त बाधाओं को हटाकर , अनुपम उत्साह के साथ जिनधर्म का स्मरण कर।
इस उपदेश को अमृत के बूंद की तरह स्थिर किए कर्णपुटो से पीया है,और स्पष्ट रूप से प्रकट किए हुए पूर्व भव वृत्तांत को श्रवण कर जिन धर्म को अंगीकार कर लिया है, इस बात को सूचित करने के लिए हस्तिराज ने अपना मस्तक हिलाया और सूंड के अग्र भाग को ऊंचा किया आकार और चेष्टा द्वारा उसने अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया। मुनि श्री ने भी उसका आशय जानकर सम्यक्तत्व सहित पांच अणुव्रत सार वाला श्रावक धर्म उसे अंगीकार कराया।हस्तिराज उसी प्रकार समग्र कार्य के विस्तार को ग्रहण करके उत्तम मुनि राज के चरण कमलो को नमन कर के अपने यूथ के साथ लोट गया।
हस्तियों के टोले के स्वामी ने उच्च भाव से धर्म को प्राप्त किया।प्राणियों की रक्षा के लिए नेत्रों द्वारा अच्छी तरह देखे हुए पृथ्वी तल पर वह धीरे धीरे पाँव रखता था।षष्ठ,अठ्ठम करने में उसका चित उद्यमवान था।सचित और सरस पल्लकी के पत्रों को तोड़ने को वह विरत हो गया था। अपने आप गिरे हुए नीरस वृक्ष के सूखे और पके हुए पत्तो का आहार करता था।क्रीड़ा का उसने त्याग कर दिया था। ग्रीष्मऋतु के उष्ण ताप से उसका शरीर सुख गया था। महामुनि की तरह उसका मन समिति गुप्तिरूप संयम में उद्यमवान था।वह अचित सैय्या और जल का उपभोग करता था। निरन्तर ही धर्मध्यान में निश्छल और तन्मय चित वाला होकर काल व्यतीत कर रहा था।अरविन्द मुनिराज द्वारा कथित धर्म ही मेरे लिए महान शरण है,यही उसकी भावना थी।
इधर कमठ अन्त में प्राण त्याग कर इसी वन में कुर्कट सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ था वह पृथ्वी पर सब प्राणियों को उपद्रव करने लगा। कुछ लम्बे समय में बेला और तेला आदि की उग्र तपस्या करने के कारण हस्तिराज के शरीर का सामर्थ्य नष्ट हो गया।प्यास से पीड़ित होकर वह धीरे धीरे एक सरोवर के पास पहुचा। सरोवर के किनारे,किनारे वृक्षो के पत्तो से और तृण समूह से अचित हुआ जल देखा।उस जल को पीने के लिए वह एक खड्डे में घुसा।परन्तु भवित्तव्यतावश उसके पाँव कीचड़ में फँस गये ज्यो ज्यो उसने बाहर निकलने का प्रयत्न किया त्यों त्यों पर्वत के समान भारी भरकम शरीर के भार के कारण नीचे नीचे धँसता गया। इसी समय पूर्वभव के संस्कार से विशेष वृद्धि को प्राप्त रोष के आवेग वाले उस कुर्कुट सर्प ने स्वभाव से कोमल कुम्भस्थल पर चढ़कर तीखे वानो के समूह जैसे नाखूनों से उसे भेद डाला।उस पर डंक मारकर दाढो से विष का प्रवेश कराया एवं अति कोमल रक्त कमल के समान उसके गण्डस्थल को नाख़ून द्वारा भेद दिया।
हस्तिराज ने उस समय अपनी मृत्यु सन्निकट जानकर उग्र वेदना को सहते हुए इस प्रकार भावना भायी—मोक्ष मार्ग के संघवाह, चौतीस अतिशय रूप रत्नों के भंडार,सुरों एवं असुरों सहित तीनों लोकों द्वारा वन्दित चरणों वाले ऋषभादिक जिनेश्वरो को मैं वन्दन करता हूँ।आठ कर्म रहित अनुपम मोक्ष धाम को प्राप्त ज्ञानादि की समृद्धि से समृद्ध और जगत में प्रसिद्ध सिद्ध भगवन्तों की स्तुति करता हु। आचार्यो को वन्दन करता हु।उपाध्याओ को वन्दन करता हूं साधुओं को वन्दन करता हूँ।
इस प्रकार सिद्ध भगवन्तों की साक्षी से पँच परमेष्टि की संक्षेप में स्तुति करके,बाल्यकाल से लेकर के अब तक के दुष्कृत्य प्रकट करके ,सम्यक् प्रकार से व्रतो का उच्चारण करके ,सभी जीवो को खमाकर और धर्म में एकाग्र ध्यान स्थापित करके अपने सर्व आहार त्याग का प्रत्याख्यान किया।पूर्वकृत पापो का विनाश करने वाले पंच नमस्कार मन्त्र का वह निरन्तर स्मरण करने लगा।अशुभ लेश्या से मुक्त हुआ।वह महाश्रद्धावान हस्तिराज मृत्यु को प्राप्त होकर तीसरे भव में देवलोक में गया।
क्रमश:———
पारस मल जैन
जोधपुर