गतांक से आगे—
*9 वें भव में प्राणत देवलोक में देव–*
दसवें प्राणतकल्प नामक देवलोक में महाप्रभ विमान में 20 सागरोपम की आयु वाले महर्द्धिक देव के रूप में जन्म लिया। वहाँ लम्बे समय तक अपूर्व दैवी सुख भोगे।
वह सिंह भी घोर पाप उपार्जन करके, आयु पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त होने पर पंक प्रभा नामक पृथ्वी में दस सागरोपम की आयुवाला नारक हुआ। वहां विविध प्रकार के दुःसह दुखों के समूह से व्याप रहने के कारण व्याकुल मन वाला, प्रतिक्षण पूर्वकृत दुष्कृत की निंदा से सन्ताप को प्राप्त कारागार में डाले हुए की तरह महान क्लेशो से मलिन उस नरकायु को भोगने लगा।आयु क्षीण होने पर वहां से निकलकर वह भवित्तव्यतावश तिर्यंच योनि के जलचर,स्थलचर और खेचर के अधम कुलो में जन्म मरण करता हुआ मुनिराज के घात से उपार्जित घोर पाप रूपी विशाल वृक्ष के कटुक फल भुगतने लगा।
किसी जगह तीखी तलवार से मारा गया,कही करवत से उसका शरीर चीरा गया,कही प्रलयकाल की अग्नि के समान देह के दाह से मरा, कही पराधीन शरीरवाला होकर वह भूखे सिंह के बालक द्वारा ग्रास बनाया गया, कहीं उस पर बिजली गिरी,कहीं दुष्ट शिकारी पशुओं ने उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े किये।कहीं भूख और प्यास की पीड़ा से चेतना रहित हुआ,कहीं काटा गया,भाले द्वारा भेदा गया । कहीं दृष्टि विष सर्प ने उसके जीवन का हरण किया।
इस प्रकार भव भव में असंख्य वेदनाओं का अनुभव करने के कारण उसके कर्म कुछ हल्के हुए। तब उसने किसी देश में आजन्म दरिद्र ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया।पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।वहां भी शेष रहे हुए पाप कर्मों के उदय से जन्म लेते ही उसके माता पिता,भाई और नजदीक के स्वजनों की मृत्यु हो गयी।तब उस देश के दया से द्रवित चित वाले जनो ने किसी प्रकार उसके जीवन की रक्षा की। लोगो ने बचपन में अनादर से उसका नाम ,कंठ, रखा।और उसका यही नाम प्रसिद्ध हो गया। बचपन पर करके वह क्लेशपूर्वक पेट भरता हुआ युवावस्था में आया। विषवृक्ष की तरह उद्वेग उत्पन्न करने वाला और समग्र जनो द्वारा निंदित वह दिन के अंत में आहार पाता था। एक बार किसी पुण्यवान सुखी को मौज के साथ हर्ष वाली सुन्दर स्त्री के वक्षस्थल में विलास करते हुए देख कर उसने विचार किया —धर्म से यह सुखी है,और पाप से मैं दुखी हूं।मुझे अब धर्म करना चाहिए। उसने किसी आश्रम में जाकर ज्वलन कुलपति के पास तापसदीक्षा अंगीकार की। ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ वह पंचाग्नि तप करने लगा।
मनोहर सुख रूपी सागर में निरन्तर निमग्न प्रवर्तमान नृत्य को देखने में विकस्वर नयन कमलवाले , श्रेष्ठ विमानावतन्सक में सुख पूर्वक स्थित कनकबाहु चक्रिश्वर के जीव श्रेष्ठ देव का आयु ज़ब थोड़ा रहा , तब वह अचानक कम्पन को प्राप्त हुआ ।उसकी मन्दार और परिजातक के पुष्पो की माला मुरझा गई। स्वर्ण के समान वस्री एक दम मलिन हो गए। तब देव के अवधिज्ञान के बल से मृत्यु समीप जानकर विचार किया— हे जीव..जन्मे हुए प्राणी का मरण अवश्य होता है,यह जान कर पंच नमस्कार का स्मरण कर। पंच नमस्कार से रहित जीवो ने अनंतबार जन्म मरण किया है। यह पँचनमस्कार मेरे हृदय पट्ट पर टांकड़ी से उकेरा हुआ है तो यमराज क्या बिगाड़ सकता है। आयु पूर्णकर वह वहां से च्युत होकर 10 वे भव में श्री पार्श्वनाथ भगवान हुए।
क्रमश—–
पारस मल जैन
जोधपुर