भगवान महावीर ने कहा, “जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो।”
यही जिन शासन है। यही तीर्थकर उपदेश है।
भगवान महावीर के इस कथन पर आप गम्भीरता से विचार करें। साधारणतः सांसारिक आदमी जो अपने लिए चाहता है क्या वह दूसरों के लिए भी वही अभिलाषा रख पाता है? यदि वह दूसरों के लिए भी वही अभिलाषा करने लगे, तो फिर अपने लिए चाहने का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यदि आप अपने लिए एक महल बनाना चाहते हैं। गहराई से सोचें तो आपको महसूस होगा कि आप अपने महल से सुन्दर किसी दूसरे के महल को देखना ही नहीं चाहते। यदि दूसरे का महल भी आपके महल जितना सुन्दर और आराम देह बन गया, तो आपका मजा तो गया। अगर सभी के पास महल हों तो आपके पास महल होने का क्या मतलब रहा ? महल के होने पर भी आप अपने अहंकार को भरना चाहते हो। यदि अहंकार ही मर गया तो महल का बचा क्या ?
आप अपने लिए जो चाहते हो, वह दूसरे के लिए कभी नहीं चाहते, हमेशा दूसरों के लिए उसका विपरीत ही चाहते हो यह आपकी ही नहीं आम सांसारिक की मानसिकता है अपने लिए संसार के सभी सुख और दूसरे के लिए दुःख । आखिर अपने अंहकार के पुष्ट भी तो करना है।
लाख आप और कुछ कहो, लाख आप ऊपर से कहो कि नहीं ऐसा नहीं है, हम सबके लिए सुख चाहते हैं, लेकिन जरा गौर से सोचना सबके लिए सुख तो कोई भी तब चाह सकता है जब जीवन से अपनी जड़े तोड़नी शुरू कर दे उससे पहले नहीं क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा का नाम है, प्रतियोगिता है, महत्वाकांक्षा है, पागलपन है, छीन झपट है, गलाघोंट संघर्ष है।
एक छोटा सा समाज है ज्यादा संख्या भी नहीं है, कुल चौतीस पैतीस हजार आदमी औरतों का अहिंसक समाज, भगवान महावीर को अपना आदर्श मानने वाला समाज इस समाज के एक हित चिन्तक ने समाज को संगठित रखने के लिए एक संगठन का गठन समाज के कुछ सम्पन्न और जागरूक लोगों को अपने विश्वास में लेकर किया। इस संगठन के गठन की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, इसकी बड़ी गजब कहानी है। इस कहानी का जिक्र करना सामाजिक सरोकारों के लिए आज के बातावरण में उचित नहीं होगा। संगठन गठन के बाद से ही महत्वाकांक्षा प्रतिस्पर्धा की प्रतियोगिता शुरू हो गई। संस्था के प्रणेता को पहली बैठक में ही बन्धक बनाकर बात मनवाने का प्रयास किया गया। मानना या न मानना यह बात मायने नहीं रखती प्रश्न है जोर-जबरदस्ती अपनी बात मनवाने का हठ। अपनी बात मनवाने का हठ किस में नहीं होगा यह जीवन की कमजोरी है। यदि संगठन में पद पाने वालों की विशेषता छल-कपट और धन हो तो उन पदाधिकारियों का हठ कितना प्रबल होगा, इसका अन्दाजा सामान्य बुद्धि और विवेक वाला आदमी सहज रूप से लगा सकता है।
हमारी सारी प्रसन्नता दूसरों की प्रदर्शन दूसरों की निर्धनता पर टिका है सहानुभूति प्रकट करें, जब भी कोई दुःखी मिलता है।
उदासी पर खड़ी है। सारे धन का लाख हम दूसरे के दुःख के प्रतिहोता है, कहीं गहरे में हमें सुख कभी आपने सहानुभूति प्रकट करते हुये अपने आपको पकड़ा। किसी का दिवाला निकल गया, आप सहानुभूति प्रकट करने जाते हो। कहते हो बड़ा बुरा हुआ! लेकिन कभी यदि आपने यह कहते हुये अपने चेहरे को आयने में देखा होता- “कि बहुत बुरा हुआ” तो आपको पता लगता कि “बहुत बुरा हुआ” कहते समय आपके चेहरे से कैसी रसधार बहती है? उस रसधार जो आनन्द है, उसका शब्दों में विशलेषण नहीं किया जा सकता।
मैं एक उठावनी में गया समाज के अनेक श्रेष्ठी, माननीय राजनीतिज्ञ, कूट नीतिज्ञय, पदाधिकारी मृतक आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजली तथा शोक से तृप्त परिवार के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए आये थे शोक सभा समाप्त होने के बाद समाज के पूर्णकालिक उधारकों की एक छोटी सी गोष्ठी, जिसमें मैं भी एक प्रतिनिधि था, सब चिन्ता प्रकट कर रहे थे कि सामाजिक संगठन में जो चल रहा है वह बहुत खराब चल रहा है खराब चलने की प्रक्रिया का आंकलन करते समय उनके चेहरे का नूर कह रहा था यदि यह खराब चलने वाली स्थिति सही हो गयी तो हमारे रस का क्या होगा ? अतः चलने दो। कहने का तात्पर्य है कि कोई यह चाहता ही नहीं था कि संगठन सुचारू रूप से अपने उद्देश्यों के लिए चले चेहरे पर चिन्ता और चिन्तन की नाटकीयता लिए वे अपने मन ही मन मगन होते हुए बनावटी शब्दों में यह कहते हुये पाये गये कि वर्तमान में जो समाज में चल रहा है वह अच्छा नहीं चल रहा टोपी फिट करने पर लगा हुआ था बना सब देख-सुन रहा था अगले ने
अजी कुछ करो एक-दूसरा दूसरे पर जो वर्तमान पदाधिकारी था वह मूक अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। एक महानुभाव ने दूसरे महानुभाव को अपनी झेंप छुपाते हुये कहा कि आप जिस दिन बुलाओगे मैं उस दिन आ जाऊँगा, दूसरे ने भी अपने झेंप छुपाते हुए अपनी पकड़ को उद्घाटित किया, साहब आप समय निकाल लो इन दोनों को तो आप जहाँ कहोगे मैं बुला लूंगा। जितने थे उनमें से कोई नहीं चाहता था कि विवाद सुलझे सबका रस विवाद में ही है। यदि विवाद सुलझ गया तो सामाजिक चौधरियों की चौधराहट खत्म यानि कि रस खत्म।
भगवान महावीर के अनुयाईयों की जीवन पद्धति उनके सिद्धान्त मार्ग सर्वदा विपरीत है। आप अपने लिए जो नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो । लोगों ने अपने लिए तो स्वर्ग की कल्पनायें की है, और दूसरों के लिए नरक का इन्तजाम किया है जब आप अपने लिए स्वर्ग की इच्छा रखते हो तो दूसरे के लिए भी स्वर्ग की इच्छा रखने की बात महावीर कहते हैं। यदि आप अपने लिए नरक नहीं चाहते हो, तो दूसरे के लिए भी नरक चाहने की बात सोचनी भी नहीं चाहिए।
भगवान महावीर का यह आधार सूत्र है। यह बड़ा सीधा सरल दिखता है, लेकिन इसका जाल बहुत गहरा है। यह सूत्र बड़ी गहराई में सांसारी के अचेतन को रूपांतरित करने वाला है अगर दुनिया के लोग इस एक सूत्र का भी पालन कर लें, तो पूरा धर्म उन्हें उपलब्ध हो जायेगा। अपने लिए वही चाहो जो आप दूसरे के लिए भी चाहते हो और जो आप अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरे के लिए भी मत चाहो अचानक आप पायेंगे, आपके जीवन की आपाधापी खो गई। अचानक आप पायेंगे कि प्रतिस्पर्धा मिट गई, महत्वाकांक्षा को जगह ही नहीं रही।
यही जिन – शासन है।
एतियंत्र जिणसासणं । यही तीर्थकर का उपदेश है। जिन्होंने जीता है स्वयं को उनका उपदेश है।
अशोक कुमार जैन
2बी, रामद्वार कॉलोनी,महावीर नगर, जयपुर