श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

अखिल भारतीय पल्लिवाल जैन महासभा (सामाजिक संगठन) बिखराव की ओर

आज से आधी सदी पूर्व, सीमित संवाद, संसाधन, संचार, समयाभाव और धनाभाव होने के बावजूद, हमारे पल्लिवाल समाज के कुछ होनहार, श्रेष्ठिवर, गणमान्य समाज सेवकों ने महसूस किया कि अन्य समुदायों या बिरादरियों की तुलना में हम नगण्य हैं और सरकारों की नजरों में हमारा कोई अस्तित्व नहीं है।

जो दूरदर्शी समाजसेवी थे, वे स्वयं पूर्ण रूप से संपन्न थे, बावजूद इसके, उनके मन-मस्तिष्क में समाज के आर्थिक पिछड़ेपन, भारतवर्षीय स्तर पर बिखराव, आपसी जानकारी के अभाव, सुयोग्य रिश्तों के न मिलने जैसी अनेक परिस्थितियों को देखते हुए समाजोत्थान की भावना जागी। उन्होंने खुद धन खर्च कर, समय निकालकर सामाजिक एकता स्थापित करने और सभी को मुख्य धारा में लाने की परिकल्पना को साकार किया। इसी प्रयास ने एक मंच को आकार दिया, जो आज वटवृक्ष के रूप में पल्लवित होकर अखिल भारतीय पल्लिवाल जैन महासभा कहलाया।

वर्तमान महासभा सत्र से पूर्व, पूर्ववर्ती समाजसेवियों और पदाधिकारियों ने अपने अनुभव, कर्तव्यनिष्ठा और उदार मन से महासभा की साख को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। अपने विराट व्यक्तित्व से सारे समाज को एकसूत्र में पिरोकर महासभा भवनों की जमीन अलॉट करवाई, निर्माण करवाया, सहायता राशि प्रदान की, सामूहिक शादियां आयोजित कीं, त्रिवार्षिक चुनाव करवाए, महासभा कोष में इजाफा किया और पत्रिका प्रकाशन को निर्बाध जारी रखा। उन्होंने सभी के सम्मान का ख्याल रखा और स्वयं भी बहुमान के धनी कहलाए। (कुछ अपवाद भी रहे और शायद आगे भी देखे जा सकते हैं। उन्हें गलत मानना चाहिए और भूल सुधार कर समाज, संगठन तथा स्वयं की गरिमा के प्रति सचेत रहना ही विराट व्यक्तित्व की गाढ़ी कमाई होती है।)

लेकिन, महासभा के वर्तमान सत्र में न केवल आपसी समन्वय का अभाव है, बल्कि संगठन संचालन में अपरिपक्वता, हठधर्मिता, कटु वचन, एक-दूसरे का मानमर्दन करने की प्रवृत्ति और स्वयं को धवल साबित करने की होड़ मची हुई है। विधान की व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर ताक पर रख दिया गया है। कोर्ट-कचहरी की चौखट पर एक-दूसरे को दोषी साबित करने की जोर-आजमाइश ने महासभा को अखाड़ा बना दिया है।

आज आधी शताब्दी से चली आ रही सहायता राशि को बाधित करना, गबन करने जैसे केस करना/झेलना स्वच्छ समाज के लिए कलंक बन गया है। कर्ता की शान और भोगी का अपमान नहीं, बल्कि यह संपूर्ण समाज को गर्त में डालने के लिए रचा गया कुकृत्य है।

आज हमारे आदरणीय पदाधिकारियों ने स्वयं गुमराह होकर संपूर्ण कार्यकारिणी को भी गुमराही की गिरफ्त में खड़ा कर दिया है। कार्यकारिणी सदस्यों ने भी अपना विवेक शून्य कर दिया है। किसी एक पक्ष के लिए यशमैन बनकर हर मीटिंग में सलाम ठोकना और पदोन्नति का जरिया बनाना ही उद्देश्य रह गया है।

समाज सेवा के नाम पर मीटिंग आयोजित कर, अच्छी आवास/भोजन व्यवस्था कर, दोनों पक्ष अपने हिडन एजेंडे (जो पहले से ही कुचक्र और कुटिल नीति से तय होते हैं) को सदन के पटल पर विचार-विमर्श का दिखावा कर अनुमोदित करवा लेते हैं।

कुछ मान्यवर बोलने में झिझकते हैं।

कुछ अंधभक्ति में लाइन में लग जाते हैं।

कुछ विधान की बारीक समझ के अभाव में राय नहीं दे पाते।

कुछ समाज में समन्वय नहीं चाहते।

जो एकाध सदस्य अपना पक्ष रखते हैं, वे वोटिंग में ठहर नहीं पाते।

अगर दोनों पक्ष संयुक्त बैठक कर, अपना-अपना पक्ष रखते, तो सदन के सभी सदस्य अच्छाई-बुराई से अवगत होते और विवेकपूर्ण निर्णय लेकर इस अराजकता पर काबू पा सकते थे।

महासभा के वर्तमान सत्र में जो घटनाएं देखी गईं, वे महासभा के आरंभ काल से आज तक कभी नहीं घटीं। मैंने पाया कि हमारे पदाधिकारियों ने न समाज के प्रति जागरूकता दिखाई, न कर्तव्यनिष्ठा, न दायित्वबोध और न ही अपनी जिम्मेदारी का अहसास किया। सदस्यगण आपके सहायक होते हैं। लेकिन, आपकी दूरगामी सोच और समाजोत्थान की भावना की कमी के कारण ही संगठन और समाज को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ रही है।

आपने समाज को उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां हर व्यक्ति दो खेमों में बंटा नजर आ रहा है। बैरभाव की खाई चौड़ी होती जा रही है, यहां तक कि बच्चों के रिश्ते भी अब पक्षपात का शिकार हो रहे हैं।

यदि आपसी संवाद पूरी तरह से समाप्त हो गया, तो सामाजिक वातावरण में अधिक उथल-पुथल मचने से बचा नहीं जा सकेगा।
प्रबल प्रश्न यह है कि—

क्या ऐसे माहौल में चुनाव सही समय पर, विशुद्ध परिवेश में, निष्पक्ष और बिना दंगा-फसाद के संपन्न हो सकेंगे?

क्या कोर्ट-कचहरी की रोक चुनाव की तैयारियों को बाधित नहीं करेगी?

क्या महासभा को नकली और असली महासभा में बांटने की कोशिशें नहीं होंगी?

अब महामहिमों ने समाज की थाती को ताक पर रखकर इसे अपनी-अपनी नाक का सवाल बना लिया है।
दोनों पक्षों की अलग-अलग बैठकों में देखा गया कि—

बैठकों का आयोजन केवल कोर्ट केस या आजीवन सदस्यता से निष्कासन तक सीमित रहा।

वैधानिक रूप से चुने हुए प्रतिनिधियों को पदच्युत करने की रणनीति ही प्रमुख एजेंडा रही।

बिगड़ते हुए सामाजिक संगठन के स्वरूप पर कोई स्वस्थ परिचर्चा नहीं हुई।

बल्कि, दोनों पक्षों की बागडोर राजनीतिक पार्टियों के चार्ज्ड प्रवक्ताओं की तरह अपने-अपने समर्थकों को उकसाने में लगी रही। एक पक्ष से ध्वनि आई—
“हमें ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा।”
दूसरे पक्ष से प्रतिध्वनि सुनाई दी—
“जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा।”

वयोवृद्ध और निशक्तजन असहाय होकर ‘मूंदहि आंख कहत कछु नाही’ की स्थिति में थे।

अब क्या किया जाए?

धैर्य और आत्मबल सफलता की कुंजी है। परिस्थितियां अनुकूल बनते देर नहीं लगती, यदि महामहिम अपने व्यक्तिगत अहंकार को त्यागकर समाजहित को सर्वोपरि मानते हुए, अपनी भूल सुधारने की दिशा में कदम बढ़ाएं।

संयुक्त बैठक बुलाएं।

संवाद की खिड़की खोलें।

एक-दूसरे को आमंत्रण दें।

समाज की बेहतरी को अपना ध्येय बनाएं।

मेरे मन में किसी के लिए कोई कसाय (द्वेष) नहीं है, परंतु पीड़ा अवश्य है।
अगर किसी को मेरे शब्दों से ठेस पहुंची हो, तो स्वजन मानकर क्षमादान देने का उपकार करें।

~ महावीर प्रसाद जैन
दिल्ली

This Post Has 3 Comments

  1. सुरेश चन्द जैन

    Very Right

  2. डॉ रविन्द्र कुमार जैन

    मैं आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ, और पुरजोर समर्थन करता हूँ!

  3. Devendra Jain

    Mahaveer ji ne satik vivechna ki hey,vivad ko samapt karne ke liye kisi ko to pahal karni hogi,nai purani Leadership group me bati hue hey.sawal hey ki pahal karne ke liye Nichhpakshh vyakti kaha se aave.Prabudhhjan soche

Leave a Reply