जैन दर्शन के अनुसार, आत्मा और शरीर का संबंध अस्थायी होता है। आत्मा शाश्वत, चेतन और स्वतंत्र तत्व है, जबकि शरीर नश्वर और पंचभौतिक होता है। आत्मा कर्म बंधन के कारण संसार में विभिन्न योनियों में जन्म लेती है। आत्मा स्वयं अपने कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती है, और जब कर्म समाप्त होते हैं, तो आत्मा उस शरीर को त्याग देती है और नए जन्म में प्रवेश करती है। आत्मा अजर, अमर अविनाशी है। इसका यह अर्थ है कि हमारी आत्मा अनन्त काल से है, वर्तमान में भी है और अनन्त भविष्य काल तक रहेगी। यानि त्रिकाल सदैव रहेगी।
शरीर आत्मा के लिए एक आवरण (आस्रव) की तरह कार्य करता है, जो उसके असली स्वरूप को ढँक देता है। यह कर्मों के कारण आत्मा के साथ जुड़ता है और केवल मोक्ष प्राप्त करने पर आत्मा इस बंधन से मुक्त हो सकती है। जैसे एक व्यक्ति नए कपड़े पहनता है और पुराने त्याग देता है, वैसे ही आत्मा नए कर्मों के अनुसार नया शरीर धारण करती है।
जैन दर्शन के अनुसार मुख्यतयाः से 9 तत्त्व माने गये है
1. जीव
जैन धर्म का मानना है कि आत्मा (जीव) एक वास्तविकता के रूप में मौजूद है, जिसका शरीर से अलग अस्तित्व है। जीव की विशेषता चेतना और उपयोग है। हालाँकि आत्मा जन्म और मृत्यु दोनों का अनुभव करती है, लेकिन यह वास्तव में न तो नष्ट होती है और न ही बनाई जाती है। क्षय और उत्पत्ति क्रमशः आत्मा की एक अवस्था के लुप्त होने और दूसरी अवस्था के प्रकट होने को संदर्भित करते हैं, ये केवल आत्मा के तरीके हैं।
2. अजीव
अजीव पाँच निर्जीव पदार्थ हैं जो जीव के साथ मिलकर ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं वे हैं:
i. – पुद्गल ( पदार्थ ) – पदार्थ को ठोस, तरल, गैसीय, ऊर्जा, सूक्ष्म कर्म पदार्थ और अति सूक्ष्म पदार्थ या परम कणों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। परमाणु या परम कणों को सभी पदार्थों का मूल निर्माण खंड माना जाता है। परमाणु और पुद्गल के गुणों में से एक स्थायित्व और अविनाशीता है। यह अपने स्वरूपों को
जोड़ता और बदलता है लेकिन इसके मूल गुण समान रहते हैं । जैन धर्म के अनुसार, इसे न तो बनाया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है।
ii. धर्म-तत्व (गति का माध्यम) और अधर्म-तत्व (विश्राम का माध्यम) – इन्हें धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के नाम से भी जाना जाता है। ये जैन विचारधारा के लिए अद्वितीय हैं जो गति और विश्राम के सिद्धांतों को दर्शाते हैं ।
iii.आकाश (स्पेस) – अंतरिक्ष एक ऐसा पदार्थ है जिसमें आत्मा, पदार्थ, गति का सिद्धांत, विश्राम का सिद्धांत और समय समाहित है। यह सर्वव्यापी, अनंत और अनंत अंतरिक्ष-बिंदुओं से बना है।
iv. काल (समय) – जैन धर्म के अनुसार समय एक वास्तविक इकाई है और सभी गतिविधियाँ, परिवर्तन या संशोधन केवल समय के माध्यम से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। जैन धर्म में, समय की तुलना बारह तीलियों वाले एक पहिये से की जाती है, जो छह चरणों के साथ अवरोही और आरोही हिस्सों में विभाजित होती है, जिनमें से प्रत्येक की अवधि अरबों सागरोपम या महासागर वर्षों के बराबर होती है। प्रत्येक उत्तरोत्तर अवरोही चरण में दुःख बढ़ता है और प्रत्येक उत्तरोत्तर आरोही चरण में सुख और आनंद बढ़ता है।
3. पुण्य
अच्छे कर्म करने से आत्मा को पुण्य (अच्छे कर्म ) का बंधन होता है। शास्त्रों में आत्मा को पुण्य बांधने के कई लाभों का वर्णन किया गया है। एक आत्मा का पुनर्जन्म उच्च घराने या अच्छे परिवार ( उच्च गोत्र-कर्म) में हो सकता है, जैसा कि तीर्थंकरों के मामले में होता है। एक आत्मा उच्च पद या उत्कृप्ट और धार्मिक जीवन प्राप्त कर सकती है। ये पुण्य करने के सकारात्मक परिणामों में से कुछ मामले हैं। एक मौलिक सत्य मानते हैं, इसका कारण यह है कि इसकी कोई दूसरी परिभाषा नहीं हो सकती है और यह अंतिम सत्य मोक्ष की प्राप्ति में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है।
4. पाप
पाप कर्म से तात्पर्य ऐसे कर्म से है जो पाप कर्म करने पर आत्मा को बांधता है । आगमों द्वारा वर्णित कोई भी कर्म जो मूल रूप से पापपूर्ण है, उसे आत्मा से पाप बांधने वाला माना जाता है। पाप को आत्मा से बांधने वाले नकारात्मक कर्मों को करने से आत्मा के लिए आत्मज्ञान और अंततः मोक्ष प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है । पाप बंधन के दुष्परिणामों के कारण आत्मा को भविष्य में या भविष्य के जन्मों में पीडा और विपत्ति का सामना करना पडता है। पाप को आत्मा से बांधने के कई नकारात्मक प्रभावों का वर्णन विहित शास्त्रों में किया गया है। उनमें से कुछ में निम्न परिवार में जन्म, दुर्बलता, ज्ञान तक बहुत कम या बिल्कुल भी पहुँच न होना और झूठी पूजा शामिल हैं।
5. आस्रव
आस्रव (कर्म का प्रवाह) शरीर और मन के प्रभाव को संदर्भित करता है जिससे आत्मा कर्म उत्पन्न करती है। यह तब होता है जब मन, वाणी और शरीर की गतिविधियों द्वारा बनाए गए कंपन के कारण कर्म कण आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं ।
आस्रव, अर्थात् कर्म का प्रवाह तब होता है जब मन, वाणी और शरीर की गतिविधियों द्वारा बनाए गए कंपन के कारण कर्म कण आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है: शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों को योग कहा जाता है। इस त्रिगुणात्मक क्रिया के परिणामस्वरूप आस्रव या कर्म का प्रवाह होता है।”
जुनून और भावनाओं से प्रेरित योग के कारण कर्म का प्रवाह लंबे समय तक कर्म के प्रवाह का कारण बनता है जो पुनर्जन्म के चक्र को लम्बा खींचता है। दूसरी ओर, जुनून और भावनाओं से प्रेरित न होने वाले कार्यों के कारण होने वाले कर्म का प्रवाह केवल क्षणिक, अल्पकालिक कर्म प्रभाव रखता है।
6. बंध
कर्मों का प्रभाव तभी होता है जब वे चेतना से बंधे होते हैं। कर्मों को चेतना से बांधना ही बंध कहलाता है । हालाँकि, योग या क्रियाएँ अकेले बंधन उत्पन्न नहीं करती हैं। बंधन के अनेक कारणों में से, वासना को बंधन का मुख्य कारण माना जाता है। कर्म वस्तुतः विभिन्न वासनाओं या मानसिक प्रवृत्तियों के अस्तित्व के कारण आत्मा की चिपचिपाहट के कारण बंधे होते हैं।
7. सँवर
संवर कर्म का निरोध है। मुक्ति या स्वयं के बोध की ओर पहला कदम यह देखना है कि सभी चैनल जिनके माध्यम से कर्म आत्मा में प्रवाहित हो रहे हैं, रोक दिए गए हैं, ताकि कोई अतिरिक्त कर्म जमा न हो सके। इसे कर्म के प्रवाह का निरोध (संवर) कहा जाता है। दो प्रकार के संवर हैं: वह जो मानसिक जीवन से संबंधित है (भाव-संवर), और वह जो कर्म कणों को हटाने को संदर्भित करता है (द्रव्य-संवर) । यह रोक आत्म-संयम और आसक्ति से मुक्ति के माध्यम से संभव है। व्रत, सावधानी, आत्म-संयम, दस प्रकार के धर्मों का पालन, ध्यान और विभिन्न बाधाओं जैसे भूख, प्यास और जुनून को हटाने से कर्म का प्रवाह रुक जाता है और आत्मा को नए कर्म की अशुद्धियों से बचाया जाता है।
8. निर्जरा
निर्जरा पहले से संचित कर्मों का त्याग या विनाश है। निर्जरा दो प्रकार की होती है:
i. कर्म को हटाने का मानसिक पहलू (भाव – निर्जरा) और
ii.कर्म के कणों का विनाश (द्रव्य – निर्जरा) ।
जब कर्म के फल पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं तो वह अपने प्राकृतिक क्रम में स्वयं समाप्त हो सकता है। इसमें किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है । बचे हुए कर्म को तपस्या के माध्यम से निकालना होता है। आत्मा एक दर्पण की तरह है जो तब धुंधला दिखता है जब कर्म की धूल उसकी सतह पर जमा हो जाती है। जब कर्म विनाश द्वारा हटा दिया जाता है, तो आत्मा अपने शुद्ध और पारलौकिक रूप में चमकती है। यह तब मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करता है ।
9. मोक्ष
मोक्ष का अर्थ है आत्मा की मुक्ति । जैन धर्म के अनुसार, मोक्ष आत्मा की एक बिल्कुल अलग स्थिति की प्राप्ति है, जो कर्म बंधन से पूरी तरह मुक्त है, संसार (जन्म और मृत्यु के चक्र) से मुक्त है । इसका अर्थ है कर्म पदार्थ और शरीर की सभी अशुद्धियों को हटाना, जो आत्मा के अंतर्निहित गुणों जैसे ज्ञान और आनंद द्वारा विशेषता है, जो दर्द और पीड़ा से मुक्त है। सही विश्वास, सही ज्ञान और सही आचरण मुक्ति का मार्ग बनाते हैं। कहा जाता है कि एक मुक्त आत्मा ने अनंत आनंद, अनंत ज्ञान और अनंत बोध की अपनी सच्ची और प्राचीन प्रकृति को प्राप्त कर लिया है। जैन धर्म में, यह सर्वोच्च और सबसे महान उद्देश्य है जिसे एक आत्मा को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। वास्तव में, यह एकमात्र उद्देश्य है जो एक व्यक्ति के पास होना चाहिए
हम सभी मनुप्य होने से जीव तत्त्व में सम्मिलित होते है। हमारे भूतकाल में जो कर्म किये उसके कारण मनुप्य भव की प्राप्ति हुई है, जैसे कर्म इस भव में करेंगे तदानुसार अगला भव चार गति (नरक, तिर्यंच – पशु पक्षी, मनुप्य और देव) में से किसी एक गति में होगा।
जितने भी जीव है, उन सभी की आत्मा पृथक पृथक होने से अपने किये गये कर्मों के आधार पर प्रत्येक आत्मा इन चार गतियों में से एक गति में ही जाती है जिससे जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहता है। इस चक्र से छुटकारा पाने का एक ही तरीका है कि हम साधना द्वारा अपने कर्मों का क्षय करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेवे ।
जब तक जीव कर्म बंध के कारण संसार में भव भ्रमण कर रहा है, तब तक निम्न पांच तरह के शरीर में से शरीर धारण करता है:-
जैन दर्शन के अनुसार शरीर (काय) पाँच प्रकार का होता है:
1. औदारिक शरीरः यह स्थूल भौतिक शरीर होता है, जिसमें मनुष्य, पशु आदि आते हैं।
2. वैक्रियिक शरीरः यह देवों और नारकों का सूक्ष्म शरीर होता है, जो इच्छानुसार रूप बदल सकता है।
3. आहारक शरीरः यह केवल अरिहंत साधु बना सकते हैं और इसे किसी ज्ञानी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा जाता है।
4. तेजस शरीर : यह ऊर्जा के रूप में होता है और शरीर की गर्मी तथा पाचन शक्ति को नियंत्रित करता है।
5. कार्मण शरीरः यह सबसे सूक्ष्म शरीर होता है, जिसमें कर्म बंध रहते हैं और यह जन्म-मरण के चक्र में आत्मा के साथ रहता है।
इन पांचों शरीर में से प्रत्येक जीव कम से कम तीन शरीर अवश्य धारण करता है। उसमें से दो शरीर यथा कार्मण और तेजस् शरीर सभी संसारिक जीवों के मोक्ष होने तक साथ अवश्य रहते है। ये दोनों शरीर इतने सुक्ष्म होते हैं जो आंखो या किसी मशीन से भी नहीं देखे जा सकते हैं। इनको विशिष्ठ ज्ञानी अपने प्रज्ञा चक्षु से जान सकते हैं। हमारे अभी इन दो के अतिरिक्त एक और शरीर जिसे औदारिक शरीर कहते हैं, होने से तीन तरह के शरीरधारी कहलाते हैं । यही औदारिक शरीर हमें वर्तमान में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है।
जैन दर्शन के अनुसार, प्रत्येक जीव के शरीर में बल प्राण (जीवन शक्ति) होती है, जो उसके अस्तित्व को बनाए रखती है। इसके सहारे से जीव संसार में जीता है और वियोग होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। यह शक्ति है, जो जीव को उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिरता बनाए रखने में सहायता करती है । यह बल जितना अधिक होता है, जीव उतना ही अधिक स्वस्थ और सक्रिय होता है। बलप्राण जीव की आंतरिक ऊर्जा और बल का प्रतीक है, जो शरीर को जीवंत बनाए रखता है। यह दस प्राणों में विभाजित होते हैं:
पांच इंद्रियों के विषय को ग्रहण करने की चेतना शक्ति को इंद्रिय प्राण कहते हैं। पाँच इंद्रियों की शक्ति (स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, और श्रवण) । मन वचन और काया द्वारा प्रवृत्ति करने की चेतना शक्ति को वचन बल प्राण कहते हैं। श्वास-प्रश्वास को ग्रहण करने एवं छोड़ने की चेतना शक्ति को श्वासोच्छ्वास प्राण कहते हैं। जिसके उदय से जीवन और क्षय से मरण हो उसे आयु प्राण कहते हैं।
1. स्पर्शन्द्रियः शरीर के जिस हिस्से से छूकर पदार्थ के स्पर्श गर्म-ठंडा, हल्का–भारी, कठोर – मुलायम, चिकना – खुरदरा संबंधी ज्ञान होता है वह स्पर्शन्द्रिय है ।
2. रसनान्द्रियः शरीर के जिस हिस्से से चखकर पदार्थ के स्वाद खट्टा मीठा, कड़वा, कसैला व चिरपरा का ज्ञान होता है वह रसनान्द्रिय है ।
3. श्रोतेन्द्रियः शरीर के जिस हिस्से से सुनकर ध्वनि, जीवों आदि की आवाज का ज्ञान होता है वह श्रोतेन्द्रिय है।
4. घाणेन्द्रियः शरीर के जिस हिस्से से सुनकर पदार्थ की गंध सुगंध दुर्गंध का ज्ञान होता है वह घाणेन्द्रिय है।
5. चक्षुन्द्रियः शरीर के जिस हिस्से से देखकर पदार्थ के रंग काला नीला पीला लाल सफेद का ज्ञान होता है वह चक्षुन्द्रिय है।
6. काय बल प्राणः शरीर में शक्ति और ऊर्जा प्रदान करने वाला प्राण ।
7. श्वासोच्छ्वास प्राणः जीव की श्वसन क्रिया को नियंत्रित करता है।
8. आयु प्राणः जीव की जीवन अवधि निर्धारित करता है । (जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि)
9. वचन बल प्राणः बोलने की क्षमता देता है ।
10. मन प्राणः सोचने और चिंतन करने की शक्ति देता है।
प्रत्येक मनुष्य की सारी शक्तियां इन दस प्राणों में सम्मिलित हो जाती है। परन्तु किसी में कम या किसी में ज्यादा ये शक्तियां हो सकती है।
यह शक्तियां आत्मा के साथ कर्मों के कारण शरीर की होती है और जैसे ही हमारा आयुष्य बलप्राण इस भव का समाप्त होता है, हमारी आत्मा इस देह को छोङ कर तुरन्त अगले भव हेतु कार्मण और तैजस् शरीर के साथ प्रस्थान कर अगले भव में नया शरीर प्राप्त कर लेती है और वहाँ प्राप्त शरीर के अनुसार नये बलप्राण प्राप्त होते है।
भावार्थ यह है कि जैन दर्शन के अनुसार आयुप्य कर्म पूर्ण होने पर आत्मा इस भव का वर्तमान औदारिक शरीर छोङकर, परन्तु अन्य दो शरीर कार्मण और तैजस् शरीर के साथ अगले भव हेतु प्रस्थान कर नया शरीर अपने किये गये कर्मों के अनुसार प्राप्त कर लेती है। यानि आत्मा तो वही रहती है परन्तु शरीर का चौगा बदलती रहती है। इस औदारिक शरीर का चौगा परिवर्तन के लिये वर्तमान शरीर का त्याग करने को ही मृत्यु कहते है।
आत्मा कर्मों का फल भोगती है
आत्मा के ऊपर अनंतकाल से कर्म बंधे हुए हैं। जब आत्मा कोई कार्य, विचार, या भावना उत्पन्न करती है, तो उसके अनुसार नए कर्म बंध जाते हैं। ये कर्म समय आने पर फल देते हैं, जिससे आत्मा सुख-दुख का अनुभव करती है।
कर्मों का फल भोगने की प्रक्रिया
1. आस्रव (Inflow of Karma ) : जब आत्मा किसी कार्य, विचार, या भावना को उत्पन्न करती है, तो कर्म कण उसमें प्रवेश करते हैं।
2. बंध (Bonding of Karma ) : ये कर्म आत्मा के साथ बंध जाते हैं और उसकी आगामी यात्राओं को प्रभावित करते हैं ।
3. उदय (Maturation of Karma): जब इन कर्मों का समय आता है, तो आत्मा को उनका फल भोगना पड़ता है। सुखद कर्म सुख देते हैं और अशुभ कर्म दुखद अनुभव कराते हैं ।
4. निर्जरा (Shedding of Karma): तप, ध्यान और सद्गुणों के अभ्यास से आत्मा कर्मों को नष्ट कर सकती है, जिससे वह मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
कर्मों के उदय के अनुसार आत्मा को भोगना पड़ता है:
पुण्य कर्मः अच्छे कर्मों से आत्मा को सुख, स्वास्थ्य, ऐश्वर्य और अच्छे जन्म प्राप्त होते हैं।
पाप कर्मः बुरे कर्मों से आत्मा को दुख, रोग, दरिद्रता और नारकीय अवस्थाएँ मिलती हैं।
नोकर्मः कुछ कर्म सीधे सुख-दुख नहीं देते, लेकिन आत्मा के अनुभवों को प्रभावित करते हैं (जैसे शरीर का रंग, रूप, स्वास्थ्य आदि) ।
आत्मा और शरीर का संबंध केवल कर्मों के कारण होता है। आत्मा स्वतंत्र है, लेकिन कर्मों के कारण उसे शरीर धारण करना पड़ता है। आत्मा अपने ही कर्मों के अनुसार विभिन्न जन्मों में सुख-दुख भोगती है। कर्म बंधन से मुक्त होकर आत्मा निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर सकती है, जहाँ वह शाश्वत सुख में स्थित होती है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के साथ होने से शरीर को व्यवहार से, सशरीरी होने के कारण सजीव माना जाता है परन्तु वास्तव में निश्चय से शरीर आत्मा से पृथक होने से शरीर को निर्जीव पुद्गलों से बना होने से अजीव माना जाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि मृत्यु होने पर आत्मा तो चली जाती है परन्तु निर्जीव शरीर यही रह जाता है।
सभी जीव चारों गतियों मे ही भ्रमण करते रहते है। इस मनुष्य भव से हम सभी देव आदि चारों गतियों में जा सकते हैं और अन्य गतियों के जीव भी मनुष्य आदि चारों गतियों में से एक में जन्म ले सकते है। मनुष्य से मनुष्य ही गति में जन्म होगा ऐसी मान्यता को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। यानि चारों गतियों में से अपने कर्मों के अनुसार किसी भी गति में जन्म हो सकता है ।
एम.पी. जैन
सेवा निवृत, निदेशक, सांख्यिकी
64, सूर्यनगर, तारों की कूंट, टोंक रोड,
जयपुर
94140 57269