मनुष्य जीवन का प्रारंभ गीली मिट्टी के रूप में होता है। जब मिट्टी गीली होती है तो उसे इच्छानुसार संस्कारित किया जा सकता है, सांचे में ढ़ाला जा सकता है। सुंदर-सुंदर आकारों में ढ़ल जाती है। मनुष्य जीवन में अनेक पड़ाव आते हैं जब हित के अवसर मिलते हैं। मनुष्य बालक से युवा, युवा से वृद्ध आदि अनेक अवस्थाओं से गुजरता है क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। हर क्षण जीवन बदलता रहता है। जैसे ग्राफ के कोण बदलते रहते हैं कभी ऊपर जाती है तो कभी रेखा नीचे आती है। बस कुछ ऐसा ही यह मानव जीवन है जो कि अनेकों संघर्षों से भरा है। ये संघर्ष ही अनेक उतार चढ़ाव बनाते हैं यदि हम जीवन का ग्राफ खींचे तो कभी दुःख के आने पर रेखा नीचे जाती है और सुख के आने पर ऊपर पहुँच जाती है। सुख के दिनों में उपलब्धियाँ होती है। रेखा ऊपर जाती है। संसार में एक मनुष्य भी ऐसा नहीं जिसके जीवन का ग्राफ सीधी रेखा वाला हो। नियम से उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं कभी पहाड़ तो कभी गड्ढ़े मिलते ही रहते हैं। पर इस संघर्षों से भरे जीवन को जो व्यक्ति संतुलित कर लेते हैं। सुख-दुःख के बीच साम्य स्थापित कर लेते हैं। वे जीवन में अप्रतिम उपलब्धियों को प्राप्त करते हैं। संतजन जीवन में उतार चढ़ाव संतुलन नहीं खोते। दुख के आने पर कूलते नहीं, और सुख के आने पर फूलते नहीं है। वे सोचते हैं-
पाप पुण्य फल माहिं, हरख विलखो मत भाई।
यह पुद्गल पर्याय उपजि विनसे फिर थाई ।।
विचारते हैं पुण्य और पाप का फल पुद्गल की पर्याये है। और पर्याये ‘उप्पदध्वंसी’ होती है अर्थात् उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। यह क्रम निरंतर चलता ही रहता है कभी पुण्योदय होता तो कभी पापोदय। परंतु ज्ञानी संतुलन बना लेता है और संस्कारों के सांचों में ढ़ल जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि अपने मानव जीवन रूपी मिट्टी को सदा गीला रखो ताकि उसके अंदर इतनी मृदुता तो रहे कि गुरु रूपी कुम्हार के हाथ में पड़े तो कम से कम वे उसे संस्कारों के सांचों में ढ़ाल मूर्ति का निर्माण कर सके।