श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

चिंता छोड़ो चिंतन करो

आज के आधुनिक परिवेश में चिंता एक आवश्यक अंग बन गया है। जिसे देखो वही चिंता में डूबा नजर आता है। कोई भी व्यक्ति फ्रेश नजर नहीं आता। जीवन में इस चिंता का प्रवेश होता कहाँ से है? जब इस प्रश्न की गहराई में उतरते हैं तो लगता है जब हमारे मानसिक विचारों की दिशा सम्यक न होकर विपरीत होती है तो वह विकृत हो जाती है और चिंता का रूप धारण कर लेती है, जीवन असंतोषी व अव्यवस्थित हो जाता है। मानसिक तनाव, चिंता करने से बढ़ जाता है और मानसिक तनाव, बाह्य और आभ्यन्तर विकास में बाधक है। किसी सुभाषितकार ने कहा है-

चिंता निशदिन जो भी करते, ज्ञान, बुद्धि बल जावे।

तन भी जावे, मन भी जावे, कोई काम न आवे ।।

चिंता छोड़कर चिंतन कर लो, गुरु यही समझाते।

बात है छोटी पर मतलब की, जो इसको अपनावे ।।

चिंता से ज्ञान, बुद्धि और बल का ह्रास हो जाता है। जो व्यक्ति अधिक चिंता करते हैं उनकी ऊर्जा व्यर्थ व्यय हो जाती है परिणाम यह निकलता है कि ज्ञान का जिस मात्रा में विकास होना चाहिए वह नहीं हो पाता है , बौद्धिक तीक्षणता में भी कमी होती है। क्योंकि ऊर्जा विपरीत दिशा में खर्च हो रही है। अधिक तनाव करने वाले व्यक्तियों को नींद नहीं आती, भोजन नहीं रुचता फलतः प्रतिक्षण ज्ञान का क्षयोपशम घटता जाता है और जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धियों से हाथ धो बैठता है और उसके पास यदि कोई कला अथवा गुण विशेष है तो वे भी नष्ट हो जाते हैं। चिंता करने वाले का बल भी क्षय हो जाता है। शारीरिक व मानसिक शक्ति के क्षय हो जाने से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घट जाती है। बॉडी में श्वेत रक्त कोशिकाओं की कमी हो जाती हैं, क्योंकि ये श्वेत रक्त कोशिकाओं के रोगाणुओं के साथ लड़ाई करती है और उन्हें नष्ट कर देती हैं, जब श्वेत रक्त कोशिकाओं की मात्रा कम हो जाती है तो वे रोगाणुओं को नष्ट नहीं कर पाती, परिणाम यह निकलता है कि विभिन्न प्रकार के रोगों से व्यक्ति ग्रसित हो जाता है और असमय में ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

इसीलिए आचार्य कहते हैं- हे भव्य ! चिंता, चिता के समान है। इसीलिए चिंता छोड़ो और चिंतन करो। ‘चिंतन’ वह वस्तु है जिससे ‘चैतन्य’ चमक जाता है। चिंतनशील की विचार शीलता की दिशा विपरीत नहीं होकर सम्यक् प्रकारेण होती है। फलतः चिंतन से हानि नहीं अपितु लाभ होता है। चिंतनशील के तत्व का विकास होता है। ज्ञान व बौद्धिक क्षमता बढ़ती ही जाती है। चिंतनशील कांटों में भी मुस्कुराता है। फलतः उसके जीवन में आये शूल भी फूल में बदल जाते हैं। चिंतनशील की ऊर्जा का क्षय नहीं होता अपितु चिंतन करने से नवीन ऊर्जा सृजित होती जाती है और प्रायः देखा जाता है कि चिंतनशील व्यक्ति अपनी सम्यक् उत्तम विचारो के कारण विभिन्न रोगों से मुक्ति पा लेता है। सकारात्मक सोच बॉडी में श्वेत रक्त कोशिकाओं की वृद्धि करती है और श्वेत रक्त कोशिकाओं के बढ़ने से रोगाणुओं का प्रभाव क्षीण हो जाता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है।

चिंता अज्ञानी व चिंतन ज्ञानी करता है। चिंतनशील का ज्ञान, बुद्धि समुद्र के जल की तरह बढ़ता जाता है। यह तो हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा। अब हम कर्म सिद्धान्त की अपेक्षा (धर्म दृष्टि से देखे) तो चिंता करने से प्रतिक्षण अनंत कर्म परमाणुओं का आस्त्रव बंध होता है और कर्म बंध होने से आत्मा की परतंत्रता बढ़ती जाती है। इसके विपरीत जो चिंतनशील होते हैं। वे असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्म की निर्जरा व संवर करते हैं और एक समय ऐसा आता है कर्म बंधन की परतंत्रता को छोड़ आत्मा स्वतंत्र हो जाती है। कर्मों से रहित हो सिद्धालय में जा विराजती है। अतः यदि शाश्वत सुख चाहते हो तो ‘चिंता छोड़ो चिंतन करो।’

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