अनेक जैन शास्त्रों में कल्की तथा उपकल्कियों का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीर के 1000 वर्ष बाद पहला कल्की राजा होता है। इसके पश्चात् प्रत्येक एक हजार वर्ष के बाद एक-एक कल्की होता है। इनके मध्य में प्रत्येक पांच सौ वर्ष बाद एक-एक उपकल्की होता है। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्ष के दुषमा नामक (पंचमकाल) में कुल 21 कल्की एवं 21 उपकल्की होते हैं, जो जैन धर्म को हानि पहुँचाते हैं। तिलोयपण्णती के दूसरे भाग में गाथा संख्या 1521 से 1529 तक इसकी विस्तृत चर्चा की है। इसके अनुसार पहला कल्की भगवान् महावीर के निर्माण के 958 वर्ष बाद हुआ, जिसका नाम चतुर्मुख था। इसका शासन 42 वर्ष तक था। कुछ अन्य शास्त्रों में इस पहले कल्की का नाम मिहिरकुल भी मिलता है। कषायपाहुड के अनुसार मिहिरकुल ने गुप्त वंश का साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और प्रजा पर बड़े अत्याचार किये। इससे तंग आकर एक हिन्दू सरदार विष्णु यशोधर्म ने बिखरी हुई हिन्दू शक्ति को संगठित करके ई. 528 में मिहिरकुल को परास्त करके भगा दिया; उसने काश्मीर में जाकर शरण ली और वहाँ ई. 540 में उसकी मृत्यु हो गयी।
न्यायावतार के अनुसार विष्णु यशोधर्म कट्टर वैष्णव था। इसने हिन्दू धर्म का तो बड़ा उपकार किया, किन्तु जैन साधुओं और मंदिरों पर बड़ा अत्याचार किया। इसलिए जैनियों में वह कल्की नाम से प्रसिद्ध हुआ और हिन्दू धर्म में उसे अन्तिम अवतार माना गया। (जैनेन्द्र सिध्दान्त कोश, भाग-2)
श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने अपनी खोज के आधार पर एक बहुत ही रोचक बात कही। इनके अनुसार ई. सन् 431 से 546 के मध्य 115 वर्ष के राज्य में एक के पीछे एक ऐसे चार राजा हुए। सभी अत्यन्त अत्याचारी थे। कल्की नाम का कोई एक राजा नहीं था; बल्कि उपर्युक्त चारों राजा ही अपने अत्याचार के कारण कल्की नाम से प्रसिद्ध हुए। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के इस कथन से निष्कर्ष निकलता है कि यह कोई आवश्यक नहीं कि कल्की एक राजा ही हो, वह कई राजाओं का समूह भी हो सकता है। इसी प्रकार वह एक व्यक्ति या फिर कई व्यक्तियों का समूह भी हो सकता है, जो जैन धर्म को हानि पहुंचाये।
भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुये 2550 वर्ष हो चुके हैं। इस प्रकार अब तक दो कल्की और दो उपकल्की तो हो चुके हैं तथा तीसरा उपकल्की वर्तमान युग में होना चाहिए। पहले कल्की के पश्चात् एक और कल्की तथा दो उपकल्की कौन थे, यह कहना तो मुश्किल है; लेकिन समय-समय पर उत्तर तथा दक्षिण भारत में अनेक जैन मंदिर तोड़े गये, कई को हिन्दू मंदिरों में परिवर्तित कर दिया गया, अनेक जैनों को अजैन बना दिया; यह सब इस बात की ओर इशारा तो करते हैं कि जिन्होंने भी ऐसा किया वे निश्चित रूप से कल्की या उपकल्की थे।
काल गणना के आधार से वर्तमान युग में भी उपकल्की होना चाहिए। यह कोई आवश्यक नहीं कि वह कोई व्यक्ति विशेष ही हो, कोई विचारधारा भी हो सकती है, किसी एक विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों का समूह भी हो सकता है, या फिर कुछ अन्य; लेकिन एक बात तय है कि जब भी कल्की या उपकल्की युग आता है तब जैनधर्म का ह्रास होता है। साथ ही कुछ विशेष बातें दृष्टिगोचर होती हैं, जैसे- जैन तीर्थों तथा मंदिरों को या तो नष्ट कर देना, या फिर अन्यमती द्वारा उनका अधिग्रहण कर लेना; जैनों का अन्य मत को मानने के लिए विवश होना; जैन साधुओं पर अत्याचार होना, इनका भ्रष्ट हो जाना तथा सच्चे साधुओं की संख्या में कमी आ जाना। आजकल देश में लोकतंत्र है। अतः किसी राजा विशेष या सरकार विशेष का उपकल्की होना संभव प्रतीत नहीं होता है; लेकिन यह भी स्पष्ट नजर आ रहा है कि वर्तमान युग में जैन तीथों पर अन्यमती द्वारा योजनाबद्ध कब्जा किया जा रहा है, बहुत से जैन जाने-अनजाने में अन्यमती होते जा रहे हैं, साधुओं में शिथिलाचार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह सब जैनधर्म के ह्रास होने के ही लक्षण हैं। अतः ऐसा लगता है कि वर्तमान युग उपकल्की-युग ही है।
अब प्रश्न यह है कि उपकल्की है कौन? मेरा मानना है कि वर्तमान युग में जैनधर्म के ह्रास होने के जो लक्षण दिखाई दे रहे हैं इसके लिए किसी उपकल्की की आवश्यकता नहीं, इस सबके लिए तो हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि वर्तमान में तो धर्म की बहुत प्रभावना हो रही है, आज अनेकों संत उपलब्ध हैं, आये दिन पंचकल्याणक, विधान, नये मंदिरों व तीर्थों के निर्माण कार्य हो रहे हैं। अतः यह जैनधर्म का ह्रास नहीं बल्कि पंचमकाल का उत्कर्ष काल है। यदि हम गंभीरता से विचार करें तो ऐसा मात्र दीखता है; लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। यदि धर्म की बहुत प्रभावना हो रही है तो जैनों की संख्या में वृद्धि होना चाहिए, कुछ अजैनों को जैन बनना चाहिए, कम से कम जो जैन थे या हैं उन्हें अन्य मत मानने के बजाय जैनधर्म में और अधिक दृढ़ होना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आता है। वास्तविकता यह है कि सन् 1947 में जितने प्रतिशत जैन थे, आज उतने भी नहीं हैं। मैंने दो जिलों के सरकारी गजट देखे एक अलवर का और दूसरा भरतपुर का। इनका प्रकाशन सन् 1968 में हुआ है। भरतपुर के गजट से जानकारी प्राप्त हुई कि भरतपुर की कामां तहसील में विजयवर्गीय जाति के वणिक् रहा करते थे जो जैन मत मानते थे। आज प्रायः सभी विजयवर्गीय लोग वैष्णव/हिन्दू धर्म को मानते हैं। अलवर जिले के गजट से पता चला कि सन 1951 में अलवर जिले में जैनों की जनसंख्या वहाँ की कुल जनसंख्या का 1.1 प्रतिशत श्री जो सन् 1961 में घटकर मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई।
महाराष्ट्र की कसार जाति के बारे में हम सभी जानते हैं कि कुछ दशकों पूर्व उनक जनसंख्या 80 हजार थी, जो घटकर अब 20 हजार रह गई है, लगभग 60 हजा जैन-कसार हिन्दू हो गये। इस प्रकार जैनों की जनसंख्या कम होने के दो कारण रहे, एक तो नये जैन बने नहीं तथा दूसरे जो जैन थे वे भी अजैन होते चले गये। आज भी अजैन होने की प्रक्रिया जारी है। जो अपने नाम के आगे जैन लिखते भी है उनमें से बहुत से नाममात्र के ही जैन हैं तथा अन्य मत के देवी-देवताओं के प्रति समर्पित हैं। आगे हम इनके कारणों को समझने का प्रयत्न करेंगे।
भारत के संविधान निर्माता डॉ. बी. आर. अम्बेडकर हिन्दू धर्म के कट्टर विरोधी थे क्योंकि हिन्दू धर्म में वर्णवाद और छुआछूत बहुत अधिक था। अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी ऐसे धर्म को अपनायेंगे जो मानव मात्र के कल्याण की बात करता हो। उनके पास दो विकल्प थे, या तो जैन बन जाये या फिर बौद्ध; लेकिन जैन समाज को शूद्र वर्ण के लोगों को जैन बन जाना नहीं सुहा रहा था। जैनों के विरोध को डॉ. अम्बेडकर ने भाँप लिया था। हमारे संतों ने भी इस बात का विरोध किया। इस विरोध के कारण सन् 1956 में डॉ. अम्बेडकर ने अपने पांच हजार समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। बाद में और भी अन्य लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। इससे पूर्व हमारे आचार्य तो हरिजन मंदिर प्रवेश को लेकर आमरण अनशन पर बैठ ही चुके थे। मेरी दृष्टि में यह हमारी बहुत बड़ी भूल थी। यदि हमने अम्बेडकर जैसे लोगों को अपने में मिला लिया होता तो आज हमारी स्थिति और भी अच्छी होती। स्मरण रहे प्राचीन काल में भी चारों वर्णों के लोग जैन धर्म मानते थे।
जरा विचार करिये, आज यदि उच्च पद पर आसीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री या फिर कोई मंत्री या उच्च अधिकारी हमारे संतों के पास आये या फिर हमारे तीर्थों के दर्शनार्थ आये तो क्या पहले हम उससे उसकी जाति या वर्ण पूछते हैं? हम ऐसा कभी नहीं करते, बल्कि हम हमेशा चाहते हैं कि वे हमारे धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित हों। हम उनसे आने के लिए निवेदन करते रहते हैं। आज छुआछूत का विचार भी पहले जैसा नहीं है। अतः हमें मानना होगा कि हरिजनों को जैन धर्म में सम्मिलित न कराना तत्कालीन संतों व समाज के नेतृत्व की अदूरदर्शिता रही। यदि हमने हरिजनों को जैन बना लिया होता तो हमारी संख्या बहुत अधिक होती। आज भी यदि हमारे संत चाहें तो इस दिशा में प्रयास कर सकते हैं; लेकिन हमें अपने विचारों को उदार बनाना होगा।
अनेक जैन शास्त्रों में सम्यक्-दर्शन के प्रभावना अंग का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें बताया गया है कि दान देने से भी प्रभावना होती है; लेकिन हमारे विद्वानों ने दान की परिभाषा बहुत ही तंग कर रखी है। दान मात्र जैन संतों या जैन अनुयायियों को ही दिया जा सकता है, यदि हमें जैनधर्म की सच्ची प्रभावना करती है तो दान के अर्थ को व्यापक बनाना होगा। साधर्मी की सहायता तो करनी ही चाहिए, लेकिन जो अजैन हैं, उन्हें भी आवश्यकतानुसार भोजन, औषधि, शिक्षा और मकान उपलब्ध कराकर उन्हें जैनधर्म में सम्मिलित किया जाना चाहिए। आज भी देश के करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। क्या उन्हें भोजन, औषधि, शिक्षा आदि प्रदानकर उनका धर्मलाभ नहीं किया जा सकता है? जब कभी बड़े-बड़े खर्चीले आयोजनों व निर्माण कार्यों से फुरसत मिल जाये तो इस पर विचार अवश्य करना चाहिए।
एक बार तेरापंथ के आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी दक्षिण भारत की यात्रा पर गये थे। उन्होंने केरल में टूटे हुये अनेक प्राचीन मंदिरों को देखा। उन्होंने लिखा कि प्राचीन समय में केरल सहित दक्षिण भारत में जैनधर्म का बहुत प्रचार था। जैनों की जनसंख्या भी बहुत थी, लेकिन आज नहीं है। इसका एक प्रमुख कारण है कि जैन लोग अपने कर्तव्यों से विमुख हो गये। जैनधर्मानुसार जो भूखा है उसे भोजन दो, जो बीमार है उसे औषधि दो, जो अशिक्षित है उसे शिक्षा उपलब्ध कराओ, जिसके सर पर छत नहीं है उसे आश्रय दो; यही सही रूप में दान है; लेकिन जैनों ने इस विचार को सीमित कर लिया तथा ईसाईयों ने इसे अपना लिया। इस कारण केरल के गरीब जैनों ने ईसाई धर्म अपना लिया। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने एक बात और कही कि कोरे अध्यात्म की बातों से कोई जैन नहीं बनता। पहले भोजन आदि की व्यवस्था करो, बाद में अध्यात्म या जैन बनाने की बात करो।
आज जितने भी जैन बचे हैं वे भी जैनधर्म से अपना मोह और ममत्व कम करते जा रहे हैं। उसका मुख्य कारण है कि हमारे संतों व विद्वानों की आम जैन लोगों में पकड़ कम होते जाना। बड़े-बड़े आयोजन देखकर यह भ्रम तो होता है कि बहुत भीड़ इकट्ठी हो रही है, अतः बहुत प्रभावना हो रही है; लेकिन जरा गौर से देखिएगा कि उस भीड़ में कौन-कौन हैं। युवा वर्ग तो बिल्कुल ही नदारद है, गरीब जैन भी उस भीड़ में नहीं होते हैं। धनवानों का बोलबाला रहता है, क्योंकि बड़ी-बड़ी बोलियां वे लोग ही लेते हैं। संतों द्वारा धनवानों की प्रशंसा होती रहती है। जब पूजा, प्रक्षाल, आरती सब कुछ धनवानों को ही करना है तो वहाँ गरीब जैन आकर क्या करेगा? गरीब जैन तो घर के नजदीक के किसी भी मत के मंदिर में जाकर बैठ जायेगा जहां उसे अपने जैसे लोग दिखें। युवा वर्ग संतों से इसलिए दूर होता जा रहा है कि वह विभिन्न आयोजनों में बढ़ते क्रियाकाण्ड को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। जब उससे धर्म की बात की जाती है तो उसके मस्तिष्क में सादगी का चित्र बनता है, न कि आडंबर का। गरीब और युवा ही समारोहों से दूर नहीं रहते, मध्यमवर्ग तथा निम्न मध्यमवर्ग के लोग भी दूर ही रहते हैं। जब वे देखते हैं कि धनवानों को मंच पर सम्मानित किया जाता है तो वे भी शीघ्र ही अधिक धनवान होना चाहते हैं तथा उसके लिए वे अन्य मत के देवी-देवताओं की ओर आकर्षित हो जाते हैं।
धर्म का सही स्वरूप समझाने में हमारे संत व विद्वान् सफल नहीं हो पा रहे हैं। वे बड़े-बड़े आयोजनों पंचकल्याणकों, प्रतिष्ठाओं व विधानों में ही धर्म को समेट लेना चाहते हैं। टेलीविजन पर भी अधिकतर ऐसे कार्यक्रमों का ही बोलबाला रहता है। यदि कोई संत या विद्वान् धर्मोपदेश देते भी हैं तो प्रायः उनका एक प्रिय विषय रहता है कि विज्ञान को भ्रामक तथा गलत बताना। विज्ञान की आलोचना करने में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं, जिन्हें बच्चे भी सिरे से खारिज कर दें।
जैन संतों व विद्वानों द्वारा जैनधर्म की जो व्याख्यायें की जा रही हैं वह भ्रम उत्पन्न करने वाली हैं। हर कोई अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलाप रहा है, कहीं भी एकरूपता नजर नहीं आती है। हर कोई अपने को सही और दूसरे को गलत सिद्ध करने में लगा हुआ है। ऐसी स्थिति में आमजन का भ्रमित होना स्वाभाविक ही है। जबसे जैन संतों ने हिन्दू देवी देवताओं, त्योहारों तथा उनकी मान्यताओं का जैनीकरण करना प्रारंभ कर दिया है, तब से यह भ्रम और भी अधिक हो गया है। नवरात्रि, काली अमावस्या, लक्ष्मीपूजन, गणेशपूजन, कृष्ण जयंती, ग्रहदोष निवारण आदि अनेक बातों को येन-केन-प्रकारेण उचित बताना प्रारंभ कर दिया है। यह भी विचार करना चाहिए कि क्या ऐसा करने से हम जैनधर्म का प्रचार कर रहे हैं या ह्रास। जैनधर्म को इतने नीचे स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है कि अब वह जैनधर्म जैसा दिखता ही नहीं है।
कुछ जैन संत अपने हीन आचरण के कारण जैनधर्म को नष्ट करने में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं। जैन विद्वान् व समाज इस पर मौन हैं। जैन समाज तो नादान है, लेकिन जैन विद्वानों का इन विषयों पर चुप्पी साधना खलता है। कुछ विद्वान् धन के लोभ के कारण अपना मुँह बन्द रखते हैं। कुछ विद्वान् जो धन के लोभी नहीं भी हैं वे अपनी जाति के मुनियों की जैनधर्म के विपरीत क्रियाओं को भी जाति व्यामोह के कारण उचित ठहराने लगते हैं। महंगे धार्मिक आयोजनों को तो सभी विद्वानों ने उचित मानना शुरु कर दिया है, जितना अधिक महंगा आयोजन, उतनी अधिक प्रभावना और इतनी ही अधिक दक्षिणा, यह एक सूत्र मंत्र बनता जा रहा है। ऐसे आयोजनों में कितना आरंभ हो रहा है, इस पर कोई विचार नहीं करता। जब ऐसे मामलों में विद्वान् लोग ही चुप रहेंगे तो आमजन जैनधर्म से विमुख होगा ही।
कई साधुओं में बढ़ते भ्रष्ट आचरण के बारे में लिखने की आवश्यकता नहीं है, इनके बारे में तो समाचार प्रायः आते ही रहते हैं। आज अनेक संत मात्र शिथिलाचारी ही नहीं हैं, वे सभी प्रकार के अनाचार, दुराचार, व्यभिचार में लिप्त हैं और दुःख की बात यह है कि इनके विरुद्ध विद्वानों द्वारा कोई भी कारगर कदम नहीं उठाया गया है। इस प्रकार सच्चे सन्तों की संख्या में बहुत कमी आई है।
कुछ संत अपने उच्च आचरण द्वारा जैनधर्म की प्रभावना कर रहे हैं। जैन व जैनेतर सभी को अहिंसा का मार्ग प्रदर्शित भी कर रहे हैं, लेकिन वे भी जैनधर्म की उन्नति में अधिक कार्यकारी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि ऐसे संत बहुत कम हैं, तथा उनके प्रयास बड़े-बड़े आयोजनों रूपी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गये हैं। इस प्रकार नये जैन बन नहीं पा रहे हैं और यदि कोई बनना भी चाहे तो जैन समाज उन्हें अपने में सम्मिलित करने में कोई उत्साह नहीं दिखाता है। पहले जैन धर्म किसी जाति विशेष से जुड़ा धर्म नहीं था। कुछ लोग यदि जैनधर्म छोड़ भी देते थे तो जैन संतों के प्रयास से कुछ नए जैन बनते भी थे। कुछ दशकों पूर्व तक नये जैन बनाने के प्रयत्र होते रहे हैं।
सन् 1958 में जैन संत समीर मुनि जी ने मध्यप्रदेश और राजस्थान के खटीक जाति के हजारों लोगों को हिंसक कार्य छुडवाकर जैन धर्म में दीक्षित किया तथा उन्हें एक नई जाति का नाम दिया ‘वीरवाल’। आज इस जाति के लोग बहुत धनाड्य है और अन्य जैनों में भी शादी-विवाह होते हैं। इसीप्रकार सन् 1961 में आचार्य नानेश जी ने राजस्थान के बलाई जाति के हजारों लोगों को जैन धर्म में दीक्षित किया और उनकी एक नई जाति बनाई, जिसका नाम रखा ‘धर्मपाल’ । हरियाणा का एक जाट बाहुल्य गाँव है बड़ौदा (जिंद)। इस गाँव के जाट सहित सभी 36 कौमों के लोगों ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया है। इसका श्रेय मुनि दयाराम जी को जाता है जिन्होंने पूरे गाँव को जैन धर्म के संस्कार दिये। आज नए जैन बनाने का श्रम कोई भी जैन संत नहीं करता है।
अब कुछ अपने तीर्थों की स्थिति के बारे में भी चर्चा कर लेना उचित होगा। हम सभी जानते हैं कि हमारे प्राचीन तीर्थों पर जैनेतर लोगों की कुदृष्टि हमेशा से ही रही है। वर्तमान में ऐसा लगता है कि भारत की बहुसंख्यक समाज योजनाबद्ध तरीके से हमारे तीर्थों को हड़पने में लगी हुई है। हमारे देखते-देखते गिरनार तीर्थ जैनों के हाथों से निकल गया है। अब शिखरजी तथा पालीताना जैसे तीर्थों पर भी उनकी कुदृष्टि है। सरकारों से कोई भी मदद नहीं मिलती है। सरकारें प्रायः अपने वोट पाने के कारण हमेशा बहुसंख्यक वर्ग का ही साथ देती हैं। इसी कारण प्रशासन भी मूकदर्शक बना रहता है। हमारे प्राचीन तीर्थ हमारे हाथों से निकल रहे हैं, इसका एक मुख्य कारण यह है कि इन प्राचीन तीर्थों से हमारे संतों का मोह भंग हो गया है। यदि कोई थोड़ा सा नाम वाला संत है वह तुरन्त अपना एक नया तीर्थ बना लेता है। इसका सर्वाधिक नुकसान यह हुआ कि संत अपने द्वारा निर्मित तीर्थ के लिए ही समर्पित नजर आते हैं। वे इस बात से ही संतुष्ट नजर आते हैं कि उनकी प्रेरणा द्वारा निर्माण कराये तीर्थ प्रगति करते रहें और इनका नाम भी होता रहे। इस प्रकार के रवैये के कारण प्राचीन तीर्थों पर संतों का आना-जाना भी कम होता जा रहा है। ऐसे नामी संत प्रायः देखने में कम आते हैं, जो अपना नया तीर्थ न बनाये हों तथा हमारे आस्था और श्रद्धा के प्रतीक प्राचीन तीर्थों के उद्धार के लिए लोगों को प्रेरित करते हों। ऐसी स्थिति में हमारे प्राचीन तीर्थ उपेक्षित होने लगते हैं और बहुसंख्यक जैनेतरों को उन पर कब्जा करने का अच्छा मौका मिल जाता है। इस प्रकार जैन तीर्थों का अन्य मत के तीर्थों में परिवर्तित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। दक्षिण भारत में अनेक प्राचीन जैन मंदिर उपेक्षित पड़े हुये हैं। यदि हमारे संतों व समाज का यही रवैया रहा तो उनका भी अन्य मत के मन्दिरों में परिवर्तित होने में अधिक समय नहीं लगेगा।
वर्तमान में हिन्दुत्व की हवा कुछ ऐसी बह रही है जिसने जैनों को भी बहुत प्रभावित किया है। इससे हिन्दुत्व तो मजबूत हो रहा है, लेकिन जैनत्व और जैनधर्म कमजोर होता जा रहा है। यह स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है जैसी पहले कल्की राजा विष्णु यशोधर्म के समय थी। उस समय उसने भी हिन्दू शक्ति संगठित करके हिन्दू धर्म का तो बड़ा उपकार किया, लेकिन जैनधर्म का बहुत नुकसान किया।
उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान युग उपकल्की युग है, क्योंकि इस युग में भी वे सभी लक्षण परिलक्षित हो रहे हैं जो एक उपकल्की या कल्की युग में होते हैं। जैसे- जैनों की संख्या में कमी आना, जैन मंदिरों व तीर्थों का असुरक्षित होना, सच्चे संतों की संख्या में कमी आना आदि; लेकिन इस सब का जिम्मेदार कोई जैनेतर नहीं बल्कि जैन स्वयं हैं, जिसमें संत, विद्वान् व समाज बराबर के हिस्सेदार हैं।
डॉ. अनिल कुमार जैन
बापू नगर जयपुर
डाक्टर अनिल जैन का लेख जैन धर्म और जैन धर्मावलंबियों के मानस को झकझोर कर नये आयामों का दिग्दर्शन कराने वाला एक क्रांतिकारी प्रयास है। डाक्टर जैन की भाषा और विचार प्रेरणा दाई है।समग्र जैन समाज को उनके अनुकरणीय विचारों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए।