श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

महावीर का पुनर्जन्म

ओम अर्हम नम:

केवल ज्ञान के पश्चात भगवान महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा पहुंचे । महासेन उद्यान में ठहरे । अन्तर में अकेले और बाहर भी अकेले । न कोई शिष्य न सहायक ।  जनता को अहिंसा की दिशा में प्रेरित करना है । साधना निष्पन्न हो गई अब उनके पास समय ही समय है । उनके मन में प्राणियों के कल्याण की सहज प्रेरणा स्फूर्त हो रही है । मध्यम पावा में सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । जिसे संपन्न कराने के लिए ग्यारह यज्ञविद् विद्वान आये जिनके 4400 शिष्य सोमिल की वाटिका में उपस्थित थे ।
सर्वप्रथम इन्द्रभूति गौतम अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान की शरण में आये और अपने मन में पल रहे “जीव के अस्तित्व ” के गूढ़ रहस्य को भगवान द्वारा प्रकाशित किये जाने और उसका समाधान पा आश्चर्य चकित रह गये ।
भगवान की वाणी में सत्य बोल रहा था । इन्द्रभूति का ग्रंथी भेद हो गया । उन्हें अपने अस्तित्व की अनुभूति हुई उनकी आँखो में बिजली कौंध गई वे अस्तित्व के साक्षात्कार को तड़प उठे वे भावावेश में बोले भंते ! मैं आत्मा का साक्षात्कार करना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन करें और मुझे अपनी शरण मे ले लें ।
भगवान ने कहा, जैसी तुम्हारी इच्छा ।
और वे अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान की शरण में आ गये ।
इन्द्रभूति ने श्रमण नेता के पास दीक्षित होकर ब्राह्मणों की गौरवमयी परंपरा के सिर पर फिर एक बार सुयश का कलश चढ़ा दिया । ब्राह्मण विद्वान सदा से गुणग्राही और सत्यान्वेषी रहे हैं । इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार जल में तेल बिन्दु की भांति सारे नगर में फैल गया । अग्निभूति और वायुभूति ने परस्पर मंत्रणा की । उन्होंने सोचा, भाई जिस जाल में फंसा है, वह साधारण तो नहीं फिर भी हमें उनकी मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए ।
अग्निभूति अपने पांच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को मुक्त कराने को चले । जनता में बड़ा कुतूहल उत्पन्न हो गया । अग्निभूति अब चर्चा का केन्द्र बन चुके थे । वे अनेक प्रकार की चर्चा सुनते हुए महासेन वन के बाहरी कक्ष में पहुंचे । वहां पहुंचते ही उनकी भी वही गति हुई जो इन्द्रभूति की हुई थी । वे समवशरण के भीतर गये । भगवान ने वैसे ही संबोधित किया, गौतम अग्निभूति ! तुम आ गये?
अग्निभूति को अपने नाम गौत्र के संबोधन पर आश्चर्य हुआ । उनका आश्चर्य चकित मन विकल्पों की सृष्टि कर रहा था । इधर भगवान ने उनके आश्चर्य पर गंभीर प्रहार करते हुए कहा, अग्निभूति ! तुम्हे कर्म के बारे में सन्देह है । क्यों, ठीक है न ?
वे बोले, भंते ! मेरा सर्वथा अप्रकाशित संदेह प्रकाश में आ गया अब उसका समाधान भी प्रकाश में आना चाहिए।
अग्निभूति! क्या तुम नहीं जानते क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ?
भंते ! जानता हूं, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ।
कर्म और क्या है, क्रिया की प्रतिक्रिया ही तो है । क्या तुम नहीं जानते, हर कार्य के पीछे कारण होता है ?
भंते ! जानता हूं ।
मनुष्य की आन्तरिक शक्ति के विकास का तारतम्य दृष्ट है, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में रहा कारण अदृष्ट है । वही कर्म है ।
भंते ! उस तारतम्य का कारण क्या परिस्थिति नहीं है ?
परिस्थिति निमित्त कारण हो सकती हैं पर वह मूल कारण नहीं है । परिस्थिति की अनुकूलता में अंकुर फूटता है, पर वह अंकुर का मूल कारण नहीं है । उसका मूल कारण बीज है । विकास का तारतम्य परिस्थिति से प्रभावित होता है, परन्तु उसका मूल कारण परिस्थिति नहीं है, किन्तु कर्म है ।
अग्निभूति की तार्किक क्षमता काम नहीं कर रही थी । भगवान के प्रथम दर्शन से ही उनमें शिष्यत्व की भावना जाग उठी थी । शिष्यत्व और तर्क , दोनों एक साथ कैसे चल सकते हैं । वे लम्बी चर्चा के बिना ही संबुद्ध हो गये । वे आये थे इन्द्रभूति को वापस ले जाने के लिए पर नियति ने उन्हें इन्द्रभूति का साथ देने के लिए विवश कर दिया । वे पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान की शरण में आ गये ।
श्रमण महावीर (आचार्य महाप्रज्ञ) से चुनी हुई

🙏🙏 विनीत 🙏🙏

हरीश मधु जैन बक्शी (हरसाना)
80 shakti nagar

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